भुवनेश्वरी चाैहान (भाविका) की कलम से

 


वैराग्य बन

बंध जाऊं एक अनमोल माला में

श्रृंगार करूं हर वेला में

गहने से अलंकृत कर दूं

यादों में तेरी

मैं खुद को तृप्त कर दूं


 मैं जान सकूं या ना जान सकूं

कितना संदिग्ध हो ये तुम्हें

घटा मेरा पहरा देंगी

चाहे चाहत हो तुम्हें

मैं इन चहचहाहट में लिप्त हो जाऊं

तेरी हल्की-हल्की मुस्कराहट में तृप्त हो जाऊं


मेरे पहरे के महफ़िल में सिला है

क्यों, कब, कैसे

ना जाने तू मुझसे गिला है

मैं हर स्वप्न उजड़े लिखूं

तेरी नजदीकी को बहुत ही गहरे लिखूं



मैं खुदा से गिला करूं

तूझे मुझसे ना ख़फा करूं

मैं जिन्दगी को नया सार दूं

तूझे मुझसे फिर मुलाकात दूं


मैंने तृप्त भाव को ख़फा कह दिया

ना जाने इस ज़ख्म को किसका नाम दे दिया

तू मेरे मजबूरी के महफ़िल को समझ

तू मेरे जिन्दगी में फिर पहर कर

मैं उस अनुभव में तृप्त हो जाऊं

जिस अनुभव से हो

वैराग्य बन


आंदोलित करता हृदय


रहमत सा ह्रदय द्वंद्व है

पहचान है या कोई प्रपंच है

चौराहे पर राह खड़ी

सूदूर ह्रदय  पनाह है


द्वंद्व है या उसकी आकस्मिक पहचान

फिर अपनी अस्मिता भूल रहा है

रह -रह कर आंदोलित करता ह्रदय

बागों में पनाह ले रहा है


भस्म होती जाती ज्ञान गंगा

फिर कोई प्रपंच जड़ रहा है

ठिकुरती -ठिकुरती जाती कोमल प्रतिबिंब

मरहम लगाने  बागों की हवा आ रही हैं


सुलझी झुलसी जाती ह्रदय कलियां

सावन में बहे जा रहीं हैं

तिल-तिल करता ये तन

फूलों में खुशियां ढूंढ रहा है


भंवरों की गूफ्तगू

उससे शिकायत कर रहा है

डगमग करती पलकें

फिर कोई उजाला ला रहा


अचेतन की बहारों में

पक्षियां झुण्ड में चहचाह रही है

आवेदन करतीं ये हवाएं

बौछारें ला रही है


छज्जे में टपकती हर बूंद

प्रियसी को पनाहगाह बुला रही है

 पनाहों में बहकी बहकी

 वो चंद दुःख त्याग रही है


दबे पांव बैठ कर

एक प्रियसी अपने प्रीतम को

फिर से दिल से भुला रही है।


भुवनेश्वरी चाैहान (भाविका)

चमाेली उत्तराखण्ड

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