डॉ पंकजवासिनी
चारों ओर पसरा है
तुम्हारा साम्राज्य!
जिधर देखता हूँ...
तुम ही तुम नजर आती हो...!
हंँसती... मुस्कुराती... लरजती... !!
और अपने हर काम से
मुझ पर निसार होती हुई...!!!
सजा घर का कोना -कोना!
-----तुम्हारे कुशल आदर्श
गृहिणी
होने की ही गवाही नहीं देता!
बल्कि मेरे जीवन में
तुम्हारे मधुर समर्पण की
कहानी भी कहता है...!!
तुम्हारे इस बिना शर्त
समर्पण ने ही तो
आधारशिला रख दी थी...
हमारे पावन प्रेम की!
और
मैं हो गया था तुम्हारा...
रोम रोम से!!
अनायास ही
बड़ी सहजता से!!!
तुम बस गई थी :
...मेरी नस नस में !
...मेरी सांँस- सांँस में !!
....मेरी धड़कन- धड़कन में!!!
अब तुम ही बतलाओ...
इस निर्मम दुनिया को!
तुम्हारे इस अप्रत्याशित
विदा कह देने पर
हठात्
मैं कैसे वर्षों के पल पल के
आत्मिक बंधन को भूल
झटक कर तुमसे
स्वयं को विलग कर लूँ!?!
और मुस्कुराने लगूँ!?!
तुम्हारे बिना...!! ?!!
*डॉ पंकजवासिनी*
असिस्टेंट प्रोफेसर भीमराव
अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय