पद्मा मिश्रा
मेरे सपनों में
अपने सपनो के रंग घोलकर
हर कटकित राह पर,
तुमने बिछाए फूल भी,,
मैं जहां उलझी,
वहां पर सुलझती हर बात थी,
जल उठे उम्मीद के
जब सैकड़ों दीपक वहां,,
जगमगाई तमस की
फिर वो अंधेरी रात थी,, डगमगाते पांव थे,पर आप जैसे छांव थे,
मैं जहां रोई, वहां पर स्नेह की बरसात थी,
रह गई बातें अधूरी, कह सकी,न सुन सकी,
प्रबल निष्ठुर काल था, और ओस भींगी रात थी,
फिर न वो सूरज उगा,न रोशनी थी प्रात की
ढूंढती आंखें थकित हैं, खो गई जो राह थी,
हो कहां पर आप, कितनी दूरियां,उस गांव की,?
याद आई आज फिर वटवृक्ष सी उस छांव की
पद्मा मिश्रा जमशेदपुर झारखंड
सभी पिताओं को समर्पित 🙏