विमल सागर की कलम से



पावस ऋतु

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सावन बरखा पावस की ऋतु

घिर घिर बदरा आये

रिमझिम बूंदें गिरतीं

प्रीति राग वर्षाए ..


तन भीगा शोला सी बूंदें

शवनम बन गिर जाये

मोर पपीहा पीहू-पीहू बोलें

दादुर राग सुनाये...


चहुंओर छटा घनघोर घटाएं

घिर घिर बदरा छाए 

मन का मोरा खिल-खिल नाचे

सावन प्रीत जगाये....


आये अम्बर मेघा कजरारे

कजरा कारे डारे

जा बरसेंगे मेघा ले असुंवा 

सबके द्वारे-द्वारे....


बिजुरिया बारिश ले प्रीत तड़कती

मन धड़कन घबड़ाए

नभ छू लूँगी प्रीत मिलन

सावन बूंदें शोर मचाये।।


मेरी मां

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मुझे जन्नत वहीं लगती

जहां बैठी हो मेरी माँ

बजे पायल बजे घुंघरू

 कदम हथेली हो तुझको माँ,


मिटा दूंगा बजूद दुनिया से

जिसने तुमको व्यथति किया

सजीं जब भी दुल्हन सी

तुम्हीं पर बार उसका था


नजर उसकी फिसलतीं हैं

जहां देखी ना मानवता

वहीं रणफेरी हो मेरी

बता दूँ उसको मानवता,


मां घर मेरी थी

वो बाहर भी मेरी

जरा सी शर्म आंखों हो

वो मां भी तेरी थी


बात इतनी समझ लेता 

ना गिरती तेरी नीयत भी

आज दिन माँ का है मेरी

दिला तू सम्मान माँ का ।।


विमल सागर

बुलन्दशहर

उत्तर प्रदेश

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