माता अनुसूया त्रिदेव संवाद









शास्त्री सुरेन्द्र दुबे अनुज जौनपुरी की कलम से



दोहा


मां के पावन कोख की,

महिमा अपरंपार।

नारायण भी हो मगन,

अवतरित हुए हर बार।।


 जननी के चरणारज से,

स्वप्न होत साकार।

आंचल में मां के भरे ,

त्रिभुवन के सुख सार ।।


लेन परीक्षा सती का,

चले ब्रह्मा विष्णु महेश।

प्रेमातुर हो मुदित मन,

धरि चले तपस्वी भेष।।


अलख जगाए जा पहुंच,

मां अनुसूया के द्वार।

भोजन दे भूखा बहुत,

कर तपसिन्ह पर उपकार।।


तूं जननी है जगत की,

ना करना इनकार।

भूख प्यास से थका तन,

भिक्षा झोली दे डार।।

 

त्रिदेवों का वचन सुन,

अनुसूया मन धरि धीर।

सोचन लागी मन ही मन,

आज जगी तकदीर।।


अनुसूया के हृदय में,

उमड़ी प्रेम की पीर।

पट कुटिया का खोलते,

बहे नयन से नीर ।।


     गीत के बोल हैं


भाव विह्वल अतिथियों से कहने लगी।

चल के आये बहुत दूर से दुःख हुआ ।।


कर दया देने दर्शन चले आए हो।

छोड़ना देवियों को ना अच्छा हुआ।।


संग लाते उन्हें भी होता सुघर,

जगमगा उठता उर का हमारे दिया।।


सोचने प्रभु लगे चोरी पकड़ी गई,

भेद खुल जाए द्वारे खड़े ना कहीं।


कह रही हो सही मां थका हूं बहुत।

चलते चलते क्षुधा से व्यथित उर हुआ।।


कब तलक द्वार पर हम खड़े यूं रहें।

बस प्रतीक्षा है कब माता  आ जा कहें।।


तंद्रा टूटी अनुसूया उर लज्जा भरी।

भूल मेरी बड़ी नाथ करना दया ।।


जान पहचान कर सिर झुकाए हुए।

विनय तपसिन्ह से कर जोड़ करने लगी।।


बड़ी मतिमंद हूं दुख बहुत है दिया।

द्वार आये अतिथि को खड़ा रख दिया।।


चलिए अंदर समंदर दया के प्रभो।

करके स्वीकार विनती

त्रिलोकी प्रभो।।


बोली अनुसूया स्वागत ए घर आपका।

भाग्य जागे मेरे आगमन जो हुआ।। 


आगमन से ए कुटिया महकने लगी।

पद के रज से सुपावन यह कानन हुआ।।


दे के दरशन हमें प्रभु  कृतारथ किया।

इस तपस्विन का जीवन सुआरथ हुआ।। 


बैठिए तृन कुशासन बिछायी हूं मैं।

दोना भरि नीर शीतल ले आयी हूं मैं।।

  

प्यासे अपने हृदय की मिटा लीजिए।

भाव भोजन परोसूंगी पा लीजिए।।


परन्तु!पहले धोलूं चरण अतिथि भगवान का।

कर कृपा पहले अनुमति मुझे दीजिए।।


धो चरण पा ली अमृत मगन मन कही।

धर चरण पावन कुटिया को प्रभु कीजिए।।


सुन्दर आसन बिछाई हूं बैठो प्रभो।

मन के भावों की थाली सजाती हूं मैं।।


बैठ आसन पर इच्छा प्रकट कीजिए।

मां से जो कुछ मिले वह ग्रहण कीजिए।।


बोले त्रिदेव माता ठहरिए जरा,

दो बचन मांग पूरी करोगी मेरा।।


बोली अनुसूया कहने में संकोच क्यों।

मांगोगे जो मिलेगा यह वचन है मेरा।।


त्रिदेवों ने कहा जो दिया है वचन।

पूरा करना उसे संकुचित हो न मन।।


तेरे ही दूध से तृप्त करना है मन।

पर न हो तन पे माता तुम्हारे वसन।। 


भाग --1

@काव्यमाला कसक

शास्त्री सुरेन्द्र दुबे (अनुज जौनपुरी)

Popular posts
अस्त ग्रह बुरा नहीं और वक्री ग्रह उल्टा नहीं : ज्योतिष में वक्री व अस्त ग्रहों के प्रभाव को समझें
Image
गाई के गोवरे महादेव अंगना।लिपाई गजमोती आहो महादेव चौंका पुराई .....
Image
ठाकुर  की रखैल
Image
भोजपुरी भाषा अउर साहित्य के मनीषि बिमलेन्दु पाण्डेय जी के जन्मदिन के बहुते बधाई अउर शुभकामना
Image
सफेद दूब-
Image