प्रकृति और हम-----
प्रकृति से प्राण है प्यारा
प्रकृति से सूरज का उजियारा
प्रकृति से जल जीवन प्रकृति और हम युग आधार है सारा ।।
प्रकृति प्राणि की सार्थकता
संसार जन्म जीवन की
चलती धारा प्रकृति और हम
एक दूजे के मित्र चोली दामन
का साथ हमारा।।
आती जब खटास प्रकृति
प्राणि रिश्तो में टूट जाता
समन्वय बदल जाता जीवन
व्यवहार हमारा।।
ना जाने कितने विपदा
आपदा से पड़ता पाला भय
हानि काआगमन व्यथित
संसार ये सारा।।
प्रकृति और हम एक दूजे के
पूरक एक दूजे की खातिर
साथ साथ चलने का संयम
संकल्प हमारा।।
मौसम ऋतुएं प्राणि जीवन
सुख संपदा आगमन का मार्ग
प्रकृति आशा विश्वास प्राणि
जीवन संचार मर्यादा।।
प्रकृति से खनिज संपदा
प्रकृति से बर्षा पानी
प्रकृति ही औषधि
दाता स्वछ प्रकृति स्वस्थ
प्राणि परिवार है सारा।।
झरना झील नदियां सागर
पर्वत वन जंगल जल जीव जीवन
अनंत प्रकृति बैभव का परिवार
है प्यारा।।
प्रकृति प्राणि एक दूजे के पूरक
एक दूजे के लिये जिम्मेदार
प्रकृति और हम एक दूजे की
जिममेदारी का निर्वाह
तब सुखी संसार है प्यारा।।
प्राणि की जिम्मेदारी
प्रकृति से ना छेड़ छाड़
करे एक दूजे की हद हस्ती का
सम्मान करें।।
निहित स्वार्थ में प्रकृति से
प्राणि ना दुर्व्यवहार करे
प्रकृति संरक्षित प्राणि संवर्धित
असंतुलित प्रकृति पर्यावरण
प्रदूषित आफत में प्राणि का
प्राण प्यारा।।
वन संरक्षण जल संरक्षण
निर्मल निर्झर कलरव करती
जल स्रोत प्रवाह हर प्राणि का
अपना महत्व प्रकृति को
मूल्यवान बनाता।।
पृथ्वी------
पृथ्वी कहती है युग मानव
तुम ही अस्तित्व अभिमान।।
प्रकृति मूक मेरा श्रृंगार
चाहत है बनी रहूँ तेरी
जननी तू मत कर मेरा परिहास।।
मौसम ऋतुएं मेरा भाग्य सौगात
वर्षा से बुझती मेरी प्यास
अन्न से धन्य कर देती मेरा
आशीर्वाद।।
शरद सर्द मेरा स्वास्थ शिशिर
हेमंत मेरी गर्मी स्वांस वसन्त
यौवन प्रकृति का मधुमास।।
मां की कोख में रहता सिर्फ नौ माह मेरे आँचल में तेरे जीवन का
पल पल पलता चलता लेता सांस।।
मैं तेरे भाँवो की जननी
तेरे मात पिता की भूमि
अविनि तेरी मातृ भूमि
पुषार्थ पराक्रम मान।।
मेरे एक टुकड़े की खातिर
जाने कितने महासमर हुये मैं तो युग ब्रह्मांड प्राणि की माँ।।
जात पांत धर्म भाषा
बोली तुमने कर डाले जाने कितने टुकड़े बांट लिया मेरे आँचल को
चिथड़े चिथड़े ।।
मैं अविनि युग मानव करती
तुमसे विनती मेरे टुकड़े कर
डाले तेरी खुशियों की खातिर
टुकड़ो में बंट जाना भी दुःख
दर्द नही।।
मेरी हद हस्ती को कुचल
रहे प्रतिदिन मर्माहत रोती हूँ।।
तुमसे यही याचना मैं जननी
जन्म भूमि हूँ वसुंधरा धरा करती
हूँ धारण तुझको किया
मेरी लाज बचाओ तुम।।
मैं मिट ना जाऊं अपना
कर्तव्य निभाओ तुम।।
प्रकृति मेरा है प्राण मेरे
यौवन का श्रृंगार मेरा प्राण
बचा रहे शुख शांति पाओ तुम।।
जल ही जीवन जल अविरल
निर्झर निर्मल मेरी जीवन रेखा है।।
जल संरक्षण मेरा संवर्धन
धर्म ज्ञान विज्ञान ने जाना है।।
वन ही जीवन जंगल पेड़ पौधे
तेरे लिये ही तेरी खातिर तेरा मंगल।।
प्रकृति पर्यावरण मेरे दो आवरण
ना दूषित कर संकल्प तुम्हे लेना
है ।।
पृथ्वी प्रकृति पर्यावरण में ही
तुझको जीना मरना है तुझको
ही निर्धारित करना है।।
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर
गोरखपुर उत्तर प्रदेश