राही सोच




मनु प्रताप सिंह 

जब तक खग का गेह नही बनता,

तब तक चलती चोंच।

रुके-झुके को क्या सहारा मिलेगा,,

राही सोच ओ राही सोच।।



सुप्त शोणित फिर उफने।

रुके पसीने,फिर बहने।

कभी भी मेहनती ऒर,,

पुरुषार्थ न बनता बोझ।।

राही सोच ओ राही सोच।1।



पंथी फिर,तुझे उठना होगा।

मंजिल पाने,तुझे चलना होगा।

नहीँ ये स्वार्थी जग,शिकार करेगा,

जैसे गिद्ध माँस को नोंच।

राही सोच ओ राही सोच।4।


शांत समुन्द्र से,कब बचेगा।

संघर्ष की कब, गाथा रचेगा।

पंथी जिंदगी -अवसर हैं तो,

यह न मिलता रोज।

राही सोच ओ राही सोच।3।


परवाने कभी, पावक से नहीं ड़रते।

पंथवीर कभी,काँटों से नहीँ सिसकते।

धरती को पावन कर दे,

तेरे चलते कदम ओज।

राही सोच ओ राही सोच।2।


मनु प्रताप सिंह 

चींचडौली (काव्यमित्र),खेतड़ी

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