एहसास

 

किरण झा

हाथ पकड़ कर आशाओं का,

अब चलने की हिम्मत कहां

बहुत जी चुके हम जीवन

अब जीने की फुर्सत कहां

व्यर्थ ही उलझनों में फंसकर अन्तर्मन को दुखाया

मैंने

थककर चूर हो गई अब

किसी से कुछ कहूं इतनी मोहलत कहां

ना सीख पाई होशियारी मैं

ना ही कुछ कलाकारी सीख पाई

फकत लफ्जों के खेल से आती है जहानत कहां

खैर छोड़िए हुजूर....

वक्त के साथ चलने के लिए कोशिश कैसे करें

अब कोई कुछ भी कहे

उघड़ी सिलाई में होती है सदाकत कहां

दुआओं में मांगा करते हैं हर रोज सुकून

पर

आजतक मिली कोई राहत कहां

जार जार होकर रो रहा है आसमां आज

अश्कों की घेराबंदी में जो कैद हो गया

उसे हासिल होगी "किरण" जमानत कहां

 ✍🏻 स्वरचित मौलिक

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