राकेश चन्द्रा
टॅंकते थे बटनहोल में सुन्दर गुलाब से
टूटे हुये बटन हैं वो आज चन्द लोग ।
ढ़ोते हैं अब बेताल को विक्रम बने हुये
परिचित सरों को फांदकर जो बढ़ गये थे लोग ।
करते थे राजमार्ग पर जो रफ्तार का पीछा
खामोश हो गये हैं वो लामबन्द लोग ।
थे लूटते जो कारवां रहबर के भेष में
नये कारवां की खोज में हैं मुब्तिला वो लोग ।
टॉनिक की तरह पीते रहे औरों का जो लहू
लिपटे हुये अनार पर अमरबेल से हैं लोग ।
खून से सनी हुई माफिक जमीन में
लहलहाते रक्तबीज वो आज बन गये हैं लोग ।
राकेश चन्द्रा
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