हमारे भारतीय परंपरा में कन्यादान के बाद पिता पुत्री से किसी भी रूप में धन स्वीकार नहीं करता जबकि वह बेटे की ही तरह बेटी को भी अपने पैरों पर खड़ा करता है। मैं इस परंपरा के प्रति कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगाना चाहती। बल्कि अपने मन में उठ रहे भावनाओं को आपके साथ बांँटना चाहती हूंँ🙏
मीनू 'सुधा'
बेटा यदि तेरा सहारा है,
फिर क्या अपराध हमारा है?
क्यों हम तेरी लाठी ना बन सकते
अनकहा बहुत कुछ कह सकते।
बेटी की कमाई ना लूंगा
मै प्राण भले ही तज दूंगा,
क्यों तूने यह संकल्प लिया
अंधी परंपरा का साथ दिया।
यह न्याय कहांँ किस तरह का है,
जिसमें फैसला एक तरफ का है।
बेटा -बेटी दोनों मेरे प्राण,
कहते थकते तेरे न जुबान।
फिर आज भेद ये कैसा है?
तेरा पैसा, मेरा पैसा दोनों
ही तो एक जैसा है।
कन्या का दान ये कैसा है
बेटी ना बेटे जैसा है?
क्यों तूने बेटी दान दिया
तूने भी पराया मान लिया।
क्यों मौन पिता तुम आज पड़े,
यह यक्ष प्रश्न लिए हम हैं खड़े।
क्या कोई शब्द बना है जो
मेरे प्रश्नों का उत्तर दें?
उत्तर के प्रत्युत्तर में
मुझे बचपन का वो आंँगन दे।
मीनू 'सुधा'
स्वरचित
पूर्णतया मौलिक