राकेश चन्द्रा
आदमी की बौनी प्रजातियॉं
की नपुंसक मुस्कानों का गले मिलना
और हथेली में छिपे बघनखों से
इन्सानियत को मुहब्बत से चीरना;
रंग-बिरंगे चमकीले कागज के टुकड़ों
की ज्वाला में जलती सलोनी ललना]
सुदूर अंतरिक्ष में आत्मघाती रणभेरियों
की करूण-क्रन्दन-गर्जना;
आज की टीस का सलीब उठाये
रूपहले कल के उजालों के बीच
मुक्त परिन्दों की तरह मैं चहकूंगा
फिर एक बार-
कल सुनना मुझे ...!!
राकेश चन्द्रा
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