विद्या शंकर विद्यार्थी
समय से डेराइल आदमी के बहुत दिना तक भय पीछा करेला। गाँव में लइका हल्ला कइलन स कि डाभ (सड़क के नाम) पर हाथी आवता। ई बात पतरेंगा के कान में पर गइल । अब का रहे पतरेंगा सड़कल अपना भुसहुल कोठा पर कब चढ़ गइलन । घर के केहू देखबो आ ना जानल गोड़ दबा पतरेंगा के भय भुसहुल कोठा धरा दिहले बा।
हर हांके ओला चभुकी के केकरो जरूरत परल त मांगे आइल। आ पतरेंगा के भइया से कहलस -
' आपन चभुकिया द ना साँझ के ले लिहऽ ।'
' हम नइखीं धइले, हमार भइयवा पतरेंगवा धइले बा, डाभ देने गइल बा ओकरा के आवे द त ले जइहऽ ।'
' ए भइया, ऊ डाभ देने काहे के जइहें,घरवे में होइहें, उनका के बोलावऽ ना, अकाज होता, हमरा। '
' आरे भाई तोहरा अकाज होता त ओकरा के हम घर में लुकववले बानी आ बहाना करत बानी कि तोहार काम अकाज होखे। '
' ना भइया ना, बाकि तोहरा ई पता नइखे नू कि डाभ देने हाथी आइल बा ? '
' आँय, हाथी ? '
' हँ भइया, हाथी। '
' तब त ऊ दू गो न फैदा लेता ।'
' भइया, हम त एके फैदा के जानत रहीं, दोसरका तुहीं जानत होइबऽ ?
' हँ दोसरका तूँ जान के का करबऽ ।'
' आरे हाथी चल गइल हो, आवऽ नीचे आवऽ आ इनिका के चभुकी दे द ।'
पतरेंगा गुर के चरूई के मूँदल मुँह खोल के फैदा लेत रहन। ई बात आउर केहू ना जानल । बस उनुकर भइया जनलन।
आज के दिन गाँव से ऊख आ कल्हुआड़ सब चल गइल बा रह गइल बा त बस जेहन में चरूई आ घरूई के गुर। 👍