मैं एक बूँद
समाहित सागर
तुम ठहरे
मैं हूँ प्रतीक
तुम विस्तार मेरे
मैं एक भ्रम
तुम निराकार हो
कठपुतली
नहीं समझो तुम
कंटक बन
पाँव में चुभते हो।
कष्टदायक
बन जाता जीवन
निकले आह
पतझड़ नीरस
बन बीहड़
वसंत का आगमन
प्रतीक्षारत
मेरे दोनों नयन
कतरे पंख लिए
विस्मृत मन
सपना की उड़ान
परिधि संकुचित!