ज़िंदगी फिर उलझ गयी सी है!
इक कहानी तिलिस्म की सी है!!
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घट गया ऐतबार अपनों पे,
प्यार में कुछ कमी कमी सी है!!
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लाज आँखों में अब नहीं दिखती,
शर्म बाजार में बिकी सी है!!
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आदमी आदमी नहीं लगता,
उसकी सूरत बदल गयी सी है!!
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हो गया है जहाॅं मसानों सा,
कू-ब-कू मौत नाचती सी है!!
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भूख मिटती न प्यास है बुझती,
जीस्त में खलबली मची सी है!!
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बॅंट गया देश फिर से फिरकों में,
जल रही आग मज़हबी सी है!!
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डूब मंज़र गए मुहब्बत के,
नफ़रतों की बही नदी सी है!!
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*- विद्या भूषण मिश्र "भूषण"-*
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