जल, थल,नभ ये प्यारे,
सब मुफ्त मिले तुझे न्यारे,
तुम्हीं ने तुमको मारा,
फिर मानव कैसे प्यारा?
है उत्थान नहीं केवल अवनति।
हा मानव! तेरी यह दुर्गति।।
स्वार्थ की थाल सजाते हो,
परमार्थ का गाल बजाते हो,
कुछ दीन हीन बलहीन सरल,
क्या उनको मीत बनाते हो?
है दिल दिमाग़ का मेल नहीं,
कोई नत कोई अवनत।
हा मानव!तेरी यह दुर्गति।।
नित नए चांद पर चढ़ते हो,
पट कम्प्यूटर का पढ़ते हो,
है बहुत जरूरी यह सब भी,
क्या मानव मन भी पढ़ते हो?
गेहूं,गुलाब के साथ संगणक,
संगम बड़ा जरूरी है।
नित नए बमों का सृजन भी,
ऐसी क्या मजबूरी है?
हे श्रेष्ठ मनुज! विश्वास तुम्हीं से है निर्गत।
फिर तेरी ऐसी क्यों दुर्गति?
हा मानव!तेरी यह दुर्गति।।
शिक्षाविद
नरसिंह सिंह (हैरां जौनपुरी)
मुंबई महाराष्ट्र
79776 41797