राकेश चन्द्रा
चहरदीवारियों में कैद तुम्हारा बड़प्पन
और भी बढ़ गया
जब कि नपुंसक मुस्कानों ने
तुम्हें घेर लिया-और
आम के पेड़ को बबूल कह दिया.
तुम्हारी उंगली के इशारों को
लोग आंखों से पीते रहे
और सख्त हथेलियों में बन्द
रेशमी सपने
सूरज की रोशनी में दफन होते रहे
और कल रात मैंने सुना
कि खेल के नाम पर कीचड़
के कुछ टेण्डर पास हो गये.
कसी जेबों वाले लोग
टुकड़ों के लिये लड़ते रहे
प्रतीक्षित युद्ध विरामों में
मुलम्मा चढ़ी मुस्कराहटें गले मिलती रहीं,
और मुट्ठियों से झांकते
बघनखों ने
अपना नमक अदा किया .
हारने वालों ने फिर
अपना इज्जत का सौदा किया
दूर कहीं
सहमी हवा को
सियारों ने बेध दिया .
राकेश चन्द्रा
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