श्री कमलेश झा
इस जीवन को क्या माने
हाथ डोर और पतंग सा साथ।
तेज हवा का झोंका खाकर
जो छोड़ देता है पतंग का साथ।।
या मानें इसे आंधी का झोंका
जो उड़ा ले जाता खर पतवार।
तिनका तिनका बिखर जाता है
जैसे आंधी जाने के बाद।।
या ये जीवन रूप घड़ा है
जिसके अंदर सिमटा जीवन।
कंकड़ का एक ठोकर ही
बिखरा देता मटके का जीवन।।
या मानें इसे निर्झर का धारा
चलते जाना जिसे धारा प्रवाह।
ठोकर जिसके भाग्य लिखा हो
फिर भी चलना धारा प्रवाह।।
या ये जीवन तीर सरिता का
जो बैठा है दो अलग अलग छोर।।
जिसके मिलने की आश नहीं है
जैसे जीवन मृत्यु और।।
या मानें इसे तेज बबंडर
जिसमे फँसा सम्पूर्ण आधार।
निकलने का न राह बचा हो
केवल फँसना हीं आधार।।
कहाँ पता था भ्रमजाल बिछा है
जिसमे फँसा है जीवन मात्र।
निकलने का तो राह बंद है
बचा हुआ है श्वास हीं मात्र।।
लीलाधर के इस रचना में
हम तो है कठपुतली मात्र।
डोर बांधा उनके हाथों में
हमको बस उनके इशारों का इंतजार।।।
श्री कमलेश झा
शिवदुर्गा विहार
फरीदाबाद