छन्द-रोधेश्यामी/मत्त सवैया

 चार कविता








माया शर्मा

गाँवें-सहरी जर-खाँसी सुनि,कानाफूसी होत इहाँ बा।

झाँके ना केहू तहवाँ पर,संका पइसल लोत जहाँ बा।।


घिरनी काटे,तड़पे केहू,मितऊ-हितऊ साथ न देलें।

फेरेलें मुँह दुसमन जइसे,आपन तनिको हाथ न देलें।।१।।


सगरो फेरा आजु समय के,आपन लोग बिराना लागे।

फरछाईं काँड़ल त छोड़ीं,नाँवँ सुनत लामें सब भागें।।

ई महमारी अइसन आइल,दोष कहाँ केहू के बाटे।

अपने जामल मुँह फेरत बा,दाँतन अँङुरी दुनिया काटे।।२।।


औषधि कवनो काम करे ना,जे छूवे ओके धरि लेला।

जग के नाच नचावत बीपति,खेलि रहलि बा बड़हन खेला।।

बस उपाहि एतने अब बाटे,अपनी-अपनी घर में र$हीं।

संगी-साथी जे आपन बा,समुझावत उनका से क$हीं।।३।।


आदत डाली हाथ धुले के,नाँके-मुँह पर जाबी चाहीं।

दू गज के दूरी हो हरदम,हाथ मिलावल तनिको नाहीं।।

अन्तिम बाटे एक सहारा,टीका लगवावे के जायीं।

जियले के इच्छा रखि मन में,लवटी अपनी घर में आयीं।।४।।


माया शर्मा

पंचदेवरी,गोपालगंज(बिहार)

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