जवाबदेही
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किसी ने योग दिया
किसी ने लंगर
किसी ने दिया देसी
किसी ने विदेशी
कोई हत्या कर रहा है कोई डाल रहा है डकैती
इतने सारे प्रश्न हमारे
मन को उलझा रहे हैं
कुछ सवालो का जवाब है गौण
व्यवस्था बिगड़ रहा है कौन ?? ??
नैतिकता की बात चले तो
लब पर ताले पड़ जाते हैं
संस्कारों की बात उठे तो
कई सवाल फिर सर उठाते
बेटी बचाओ बेटी बचाओ
के नारे फिर लगाता कौन
जब इज्जत की बात उठे तो
धज्जियाँ फिर उड़ाता कौन
नेताओं पर बोलना भारी
जनता खड़ी लाचार बेचारी
कहीं भेद कहीं भाव की जंग है
कहीं जात और पात का रंग है
कहीं पीट रही नर को नारी,
कहीं जल रही औरत बेचारी
कोलाहल है चारों और,
फिर पाठ अमन का पढ़ा रहा है कौन
जीवन हुआ है अस्त-व्यस्त
कोई बोलने वाला नहीं
अपनी अपनी जिम्मेदारी लेकर
खुद में संतुष्ट होना सीखो
तोलमोल कर जीवन जी लो
अपने प्रश्नों का हल
खुद के ही भीतर तुम खोजो
कभी यूँ ही - तुम मिल जाओ सरे राह
यूं ही कभी हम सेहरा
कभी बरसात होते हैं
आप मुस्कुराए तो रोशन
वरना घनेरी रात होते हैं
यूं ही उठाया हाथ आपने
यूं ही फिर छोड़ दिया
यूँ ही खेल खेल में आपने
अनजाने ही दिल जोड लिया
कभी यूं ही
आप जो मिल जाए सरे राह
बांट लूँ आपसे अपने मन की हर चाह
ना हो बंदिश कोई वक्त की, ना ख्वाइशों की,
मान की, नाअपमान की
ना उम्र की, ना सीमा की
कभी यूं ही मिल जाए आप सरे राह
ना हो कोई महफिल
ना कोई रास्ता हो
मंजिल भी ना हो कोई
बस तुझीसे राब्ता हो
टिका सकूं जहां अपना सर
ऐसा एक ठिकाना हो
लगा सकूं जहां अपना दिल
ऐसा एक फसाना हो
छोड़कर फ्रिक सारी, जिक्र सारे ,
उलझने ,मुश्किलें, नाराजगीयाँ और अनबन
मिल जाए वो मुकाम
बैठ जाऊं जहां भूलकर हर काम
हर याद हर खयाल हर अदा,
शिकवे शिकायतें और गिला
कुछ ना रहे याद
यही एक छोटी सी इच्छा
यही एक छोटी सी आस
बारिशे मेरे आँगन से होकर जब भी गुजरी
तेरे शहर मे आज बेसबब आई हूँ
साथ मुकद्दर के कुछ लम्हे लाई हूँ
मुस्कुराना मेरी आदत है ,तो हो
आँसू तेरी आँख से भी चुराने आई हूँ
वो जो करते रहे बाते किरदार की
उल्फत की इनकार की इकरार की
कैसे कह दूँ कि मैं वफा नहीं समझी
मुहब्बत थी मैं ,मगर एक बेवफा यार की
तुमने जब भी उठाई उगलियाँ मेरी तरफ
नजर तुम्हारी भी गई एक दफा खुद पर
मैं तो फिर भीरही पाक दामन जमाने में
तुम तो चेहरा दिखा ना सके खुदा को भी
तुमसे नाराज होना मेरी फितरत न थी
तुमपे एतबार करना मेरी आदत ही रही
कैसे मुडकर गये बेरुखी से इतराते हुऐ
एकदफा गैर समझ कर भी उल्फत न की
अहसान करना तुमने कभी सीखा नहीं
इनायत समझने की जुरूरत ना रही
मेरी उदासी मेरे आँसू तुम्हें दिखते कैसे
गैर की मुहब्बत आँख से तेरी रुखसत न हुई
खिलखिलाने से ही लफ़्ज भीगे थे सभी
बारिशे मेरे आँगन से होकर जब भी गुजरी
दिल को सुकूँ नजरों को राहत हुई
एक तेरे जाने के बाद चाँद देखा जो कभी
आसमाँ से ही पूछ लेते पता मेरी जानिब
जमीं की प्यास का लगता अंदाजा तुम्हें भी
मौसम तो चंद रोज ठहरकर गुजरते ही हैं
बावस्ता हो जाते समन्दर की गहराई से भी
दिलो मे अपने क्या क्या लिये फिरते हो
इतने मासूम न दिखो यहाँ वहाँ गिरते क्यूं हो
जज़्बात गैर जरूरी हैं तो लिखते क्यूं हो
नजरे कहीं ओर, दिल में हमें रखते क्यूं हो
चाँद को गुमाँ खूबसूरती का हुआ ही नहीं
सितारों ने भी कभी गुमाँ किया ही नहीं
हो सकते हैं ख्वाब किसी और आँखो का
कदर हमारी इतनी भी तू समझा ही नहीं
डाॅ अलका अरोडा
प्रोफेसर - देहरादून