मन
स्वप्न मन में नवल से नित
किस धरा से रोज जुड़ते।।
मन चाहे बनके पाखी
नीला गगन पार करना।
बंन्दिशों को छोड़ कर हर
चाहता नव रूप धरना।
कंटकों को चुने पथ से
रास्ते मंजिल पे मुड़ते।।
धर्म की हर बेड़ियों को
चाहता वह तोड़ना है।
चाहे मानव को सारे
एक पथ से जोड़ना है।
स्वप्न नित बनकर पखेरू
बादलों के पार उड़ते ।।
यह धरा नित मुस्कुराये
जीवन रहे सबका सुखी।
हर किसी के पास घर हो
हो नहीं अब कोई दुखी।
स्वप्न मन में नवल से नित
किस धरा से रोज जुड़ते।।
मनुज
मनुज बना निरीह देखो
चाहता मन आस खिसकी।
उलझनों में उलझा पड़ा
ले सहारा आज किसकी।
रो रहा अपने किये पर
वह स्वयं ही दोषमंडित।
कुछ आकांक्षाओं के हित
कर दिया क्या आज खंडित।
व्यंजना भी रो रही है
देख आंसू धार उसकी।।
छूटता जाता समय है
सूझता अब पथ नहीं है।
उम्मीद की किरणें दिखें
ढूंढ़ता वह पथ कहीं है।
फिरखिले खुशियाँ मुखर हो
मनुज चाहता है जिसकी।
काँच सा बिखरा हुआ है
दर्प सारा चूर होकर।
कुछ नहीं अब हाथ आता
सिर पटकता आज रोकर।
उलझनों में उलझा पड़ा
ले सहारा आज किसकी।
चितवन
देख कर चितवन तिहारी,
मन मेरा है क्यों महकता।
ओंठ पर थिरके ख़ुशी है
दिल मगन देखो चहकता।
नाचते पग हैं सभी के
बांसुरी धुन सुन मनोहर।
खिल रही यमुना दिवानी
रख रही सब है धरोहर।
जब खुशी आहट सुनाती
तितलियों सा मन बहकता।
आँख भर आई हमारी
सपनों की बातें सारी।
बीत गयीं यादें आतीं
उनके आगे मैं हारी।
ओंठ पर थिरके ख़ुशी है
दिल मगन देखो चहकता।
फिर वही बातें पुरानी
फिर वही यमुना किनारा।
बांसुरी की धुन सुनायें
कदँब का लेकर सहारा।
मन हमारा चाहता यह
दिन वहीं पर रहे रुकता।
जीवन
कठिन रहा जीवन हरदम
फिर भी जीवन है भरती।
मंगल वह करने वाली
धन्य हुई उससे धरती।
युगों युगों पीड़ा सहती
रही सभी खुशियाँ देती।
जीवन देती वह जननी
और साथ जीवन सेती।
जीवन का उपहार लिए
धन्य धन्य उससे धरती।
अपमानित होती हरदम
फिर भी खुशियाँ है बाँटे।
सुमन सजाती बच्चों हित
अपने हित रखती काँटे।
बनी बेड़ियां ये पायल
फिर भी छमछम जो करती।।
बिना स्वार्थ डोले चहुँ दिशि
बदले में कुछ कब पाती।
पीड़ा गरल पिये निशिदिन
फिर भी वह हँसती जाती।
अर्द्धभाग जिसका जग में
वही मगर तिलतिल मरती।
भाँवर
खेलने की उम्र थी पर
पड़ गया था उसका भाँवर।
हाथ में होती किताबें
कांधों पर रख दी कन्हावर।
जाती जो आगे मंजिल तक
राहें उसको अनजानी भेजी।
बेटों को भरपूर सम्भाला
बेटी एक न गयी सहेजी।
आज नन्हे पग दिखाए
घाव सा छिपता महावर।
बोझ क्यों लगती है जायी।
बचपना भी छीन लेते।
खुद से न जाये जो संभाली।
खुशियाँ ही सारी बीन लेते।
मत करो अन्याय उसपर
कांधों पर रखना मत काँवर।
शिक्षा पूरी करने दो उसको
मत दो पैरों में उसके छाले।
उसमें है शक्ति दुर्गा जैसी
दुनिया को जो माता पाले।
हाथ में होती किताबें
कांधों पर रख दी कन्हावर।
दर्द
यह कठिन आयी घड़ी है
दर्द से दिल बिलबिलाये।
राहें भी मिलती नहीं हैं
दूर मंजिल झिलमिलाये।
कांच के टुकड़ों सा बिखरा
आज वह मजबूर इतना।
हर घड़ी बस पथ निहारे
होती निराशा नित्य उतना।
नेत्र कर चीत्कार रोये
नाव जीवन तिलमिलाये।।
मंदिर मस्जिद सारे छूटे
छूट गये हैं अब गुरुद्वारे।
कामकाज छूटा कितनों का
कितने मर गए बिन मारे।
राहें भी मिलती नहीं हैं
दूर मंजिल झिलमिलाये।
चाँदनी
चाँदनी जागे संग में
हिया में फैली उजेरी ।
पैरों की पायल गाये।
पिय की फिर यादें आयी।
कँगना रूनझुन कर बोले
सांझ की बेला है छायी।
फिर महावर मेंहदी ने
बन खुशी बँधन बिखेरी।
दीप लहराये खुशी से
पवन मन्द बहका डोले।
चाँद देखकर मुस्काये
चुपके जैसे कुछ बोले।
चाँदनी जागे संग में
हिया में फैली उजेरी ।
मन भी जाने क्या गाये
बंशी कानों में बजती।
बाट देखती प्रियतम की
तरह तरह से है सजती।
प्रेम का प्रतिबिम्ब झलके
नेह ने मूरत उकेरी ।।
नारी
नारी ने जब-जब ठाना
दुनिया दुष्टों को मेटी।
ये तो है जननी जग की
मत समझो इसको चेटी।
चलता है घर इसपर ही
नर नारी हैं दो पहिए ।
दुनिया का गौरव नारी
अर्द्ध भाग जगका कहिए।
ये तो है जननी जग की
मत समझो इसको चेटी।
नारी शक्ति नारी भक्ति
तोल नहीं इसका कोई।
हाथों में ताकत इतनी
सके जगा किस्मत सोई।
कल्पना ही नाचती है
धार दुर्गा रूप बेटी। ।
मिला नहीं अधिकार इसे
फिर भी है आगे बढ़ती।
चट्टानों को तोड़ा है
रही शिखर पर यह चढ़ती।
कँटक पथ स्वीकार किया
नहीं किसी को है सेटी।
बोझ
बालपन को छीन उसके
बोझ घर का सर दिया है।
फूलों से प्यारे सपने
छीन कंटक भर दिया है।
बोझ हल्का कर रहे थे
ले किताबें हाथ से वे।
घर पराये कर दिया फिर
दूर अपने साथ से वे।
हँसती सी बाला का है
कटुक जीवन कर दिया है।
कैसी वे नीति चलाते
दया नहीं मन में आती।
अपनी ही संतान सुता
नहीं मगर उनको भाती।
शिशु सुता की गोद में है
भार माँ का धर दिया है।
छूने पाती गगन उसे
बंधन में उसको जकड़ा ।
तोड़ दिया सपना उसका
जाल बिछाये ज्यों मकड़ा।
फूलों से प्यारे सपने
छीन कंटक भर दिया है।
कष्ट
कष्ट पर नव कष्ट देते
और कितना साधना है।
पीड़ा हर जग की प्रभु तू
जग करे आराधना है।
जग खड़ा यह रो रहा है
कुछ भी छिपा तुझसे नहीं ।
आशाएं होतीं खंड खंड
आ जाओ तुम हो जहाँ कहीं।
पीड़ा हर जग की प्रभु तू
जग करे आराधना है।
हो गयी परीक्षा बहुत प्रभु
देखो कितना तड़प रहा।
कितने ही जीवन लूटे
प्रतिदिन लाखों हड़प रहा।
ये छिदा तन बींध डाला
और कितना बाँधना है।
तेरे ही भय से डरकर
कालिया सा नाग भागा।
कंस मरा अत्याचारी
भाग्य सभी का था जागा।
रोग बना राक्षस डोले
आज इसको नाँधना है ।
प्रकृति
मोर करे है नृत्य मनोहर
प्रीत दिखावे किसे घनी।
कोयल गाये मधुरिम वाणी
मीठे से रस गीत सनी।
हरियाली है चहु दिशि छायी
मन उपवन में हर्ष खिला।
बगियन में हैं झूला झूले
जीवन को उत्साह मिला।
अद्भुत सा संसार बना है
बिजली घन में आज ठनी।
तरह-तरह के पुष्प खिले हैं
खेतों की शोभा न्यारी।
बागों में कोयलिया गाये
लगती है सबको प्यारी।
भौरें अपने सुर में छेड़ें
आकर्षण का केंद्र बनी।
मदमस्त पवन डोले हर्षित
पुष्पों का मन देख खिला।
घनन घनन घन मेघा गरजे
रहा धरा को अमिय पिला।
धरती भी प्रियवर को देखे
व्याकुल सी हो रही धनी।
पीड़ा
हरदिल से आहें फूटे हैं
धरती पर ज्वाला हो जैसे।
कैसे धीर धराऊं मन को
जब हों कष्ट सामने ऐसे।
कहते हो क्या यह तो सोचो
जीवन लुटता जाता हरदिन।
देखें बस इक दूजे का मुख
दिन सब बीत रहे बस गिनगिन
पर्वत का आंसू हैं झरना
नदी हर्ष की गाथा कैसे ?
धरती रोती आंसू भर भर
संतानें उसकी नित लुटती।
दर्द उठे सीने में उसके
रह जाती बस दिल में घुटती।
तड़प बढ़ी जाती है उसकी
हरदिन कटता जैसे तैसे।
गीत और संगीत न भाये
मानव पर यह विपदा कैसी?
दुआ कोई काम ना आये
देखा नहीं समय है ऐसी।
कैसे धीर धराऊं मन को
जब हों कष्ट सामने ऐसे।
डॉ सरला सिंह 'स्निग्धा'
दिल्ली