प्रियंका दुबे 'प्रबोधिनी'
फूँक-फूँक कर..
रखती थी कदम
जीवन के हर क्षेत्र में
फिर भी...
न जाने कब
एक अनदेखे एहसास ने
बाँध लिया मुझे
अपने पहलू में
और जैसे थम सी गई
जीवन की यात्रा
ठहर सा गया..
समय चक्र और..
तेज हो चली
हृदय की गति..
जैसे सासें बहुत शीघ्र
पूरी कर लेना चाहती हों
अपने हिस्से की यात्रा..
जैसे आत्मा बदल देना चाहती हो..
अपने रहने का स्थान
जैसे उन एहसासों को
साथ लेकर
निकल जाना चाहती हों
अनंत क्षितिज के उस पार
जैसे कर लेना चाहती हों
उनसे एकाकार...
हाँ सच कहती हूँ..।
स्वयं पर से स्वयं का
नियंत्रण खत्म सा हो गया है..
भावनाएँ प्रबलतम हो रही हैं
विवेक मद्धिम होता जा रहा है
चित्त अशांत रहने लगा है
हे! मेरे गिरधारी!!!
अब तुम ही राह दिखाओ!!
मन में आशा की ज्योति जगे..
ऐसा ही एक...
ज्ञान का दीप जलाओ!!
प्रेम और भक्ति में अंतर
के दर्शन को...
मेरे मन मंदिर में बैठकर
मेरे अंतर्मन को समझाओ!!
अंतर्वेदना के समुंद्र में..
इन ..उठती - गिरती..
उन्मादी लहरों को
एक दिशा दे जाओ!!
बस जीवन की इस.
डगमगाती भाव रूपी
नईया को.. .अब..
तुम ही ...
पार लगा जाओ!!
प्रियंका दुबे 'प्रबोधिनी'
गोरखपुर, उत्तर प्रदेश