हिंसा

देवकी दर्पण

हिंसक न बन जन मानस को वार तन,

 धारण अहिंसा कर जीवन सुधारले। 

हत्या कर क्रूरता से पेट जीवों से न भर, 

छप्पन है भोग निज जिन्दगी सुधारले। 

जिन्दगी सभी को प्यारी, फूले सब ही की क्यारी, 

अपनी भी जरा तू स्वच्छन्दगी सुधारले। 

योनियाँ चौरासी लाख भुगत मिली है देह, 

सदकर्म राह चल फन्दगी सुधारले। १।



मानुष है मनुष्यता पाल जरा हिरदे में, 

धरम का मूल दया मंत्र जान लीजिए। 

कोई भय नही खाये, हंसता समीप आये, 

जीवन जीवों का हो स्वतंत्र जान लीजिए। 

रख सद्भाव सादगी से पूर्ण जीवन हो

उजला हो जीवन चरित्र जान लीजिए। 

जग हो सुखद सारा रख तू विचार प्यारा 

सुमरेगी पीढ़ियाँ ये मित्र जान लीजिए। २। 


हिंसा कर इह लोक परलोक न बिगाड़, 

शारीरिक मानसिक दुखड़े पकड़ते। 

मानसिक तनाव उद्वेग चिंता भय नित, 

रोग टीवी कैंसर ह्रदय को जकड़ते। 

सिर दर्द उन्माद पागलपने का दौर, 

लोक अपमान पैर जमीं से उखड़ते। 

शत्रुता कलह होगी सामाजिक प्रतिष्ठा दागी, 

जेल प्राण दंड क्यो अकाल मौत लड़ते। ३। 


हिंसा जान लेना ही नहीं है मेरे भाई जान, 

हिंसा वाणी मन कर्म वचन भी करते। 

तेरा अतिक्रमण वहां है जहां तेरा नही, 

तेरा निज स्वार्थ हित जतन भी करते। 

हिंसा दिल दुखाना है बहकाना बहाना है, 

कर गंभीर मन मंथन तो करते। 

दिल जब दुखता है हाय वह फूंकता है,

मजबूर वचनों से पतन ही करते। ४। 


घर परिवार रिस्तेदार व पड़ोसियों मे, 

हिंसा नित फलती निगाह होनी चाहिए। 

संस्कार बिगड़े नसेड़ी मांसाहारी हुये, 

हिंसा ही तो होगी यह ताह होनी चाहिए। 

एक भी हो निर्मल नेत्र करके सजल, 

तोड़ निकालेगा कोई राह होनी चाहिए। 

हिंसा भी रुकेगी प्यारे, शाकाहारी होगें सारे, 

सफल होने की बस चाह होनी चाहिए। ५। 

               

देवकी दर्पण

काव्य कुंज रोटेदा जिला बून्दी राज.

पिन ३२३३०१ मो.९७९९११५५१७

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