बहुत बेकली है तुम्हारे... शहर में,
सभी जी रहे हैं नियति के कहर में।
चलो ले चलूँ गाँव की उस गली तक,
सुकूँ हैं बड़ी उस बहकती.. डगर में।
नही कोई भूखा रहे एक दिन भी,
नही जिंदगी यूँ लटकती.....अधर में।
शहर में तो इंसान बिकने लगे हैं,
कहाँ मुफलिसी तेरी उनकी नज़र में।
चली अब सियासत की ऐसी हवा है,
नही ये पता जाने हो तुम.. किधर में।
तुम्हीं हेडलाईन की सुर्खियाँ हो,
तुम्हीं छपते अख़बार की हर ख़ब़र में।
ये पाँवों में छाले किसे दिख रहे हैं,
सरे राह जीवन कटे... दर - बदर में।