कीर्ति चौरसिया
बहुत दिन हुए यूं हकीकत
में लिपटे हुए,
चलो ,आज एक ख्वाब,
फिर बुना जाए।
उलझती, सुलगती
फिर ठंडी होती,
हकीकत को दूर फेका जाए
चलो, आज एक ख्वाब फिर बुना जाए।।
बहुत डरने लगी थी
सच की आहटों से,
दूर बैठी हैं जो मेरे इंतजार में
आज उन्हीं के करीब जाया जाए,
चलो ,आज उन्हें ही डराया जाए,
आज एक ख्वाब फिर बुना जाए।।
क्यों समझकर ज़िंदगी
और उलझाया जाए ,
बस कुछ सपनों को ही
सही एक मखमली लिवास पहनाया जाए,
चलो , एक ख्वाब फिर बुना जाए।।
अब खुशी से ओढ़ लेती हूं
उन्हीं सच्चाइयों को,
रत्ती भर भी जो मेरी
फ़िक्र नहीं करती,
झूठे गुमान में रहने वाली
सच्चाइयों को आईना दिखाया जाए ,
आज स्वाभिमान का महल बनाया जाए ,
इक ख्वाब फिर बुना जाए।।
स्वरचित, मौलिक,
कीर्ति चौरसिया
जबलपुर (म.प्र.)