अनिता मंदिलवार "सपना"
चाहती हूँ
बहुत दूर
चली जाऊँ
आवाज देने
पर भी
लौट न पाऊँ
अब इत्मीनान है
अकेला कोई नहीं
सब हैं साथ
अब आराम की
दरकार है
चिरनिद्रा
बुलाती है हमें
कदम
बढ़ाना ही होगा
वादे निभाये कम
टूटते ज्यादा हैं
जीवन
बना न अपना
रह गया
कोई सपना
दिल और दिमाग
चल पड़े हैं
अलग राहों पर
इस अन्तर्द्वन्द्व का
अंजाम क्या होगा
ईश्वर ही जाने
सब खेल उसी का
हम एक पात्र मात्र
निभाते किरदार
अपना
मंच पर यहाँ
जिसकी डोर
प्रभु के हाथ है !