ललिता पाण्डेय
वो ओढ़ आधुनिकता का लिबास
उड़े आसमां तलक
लेकिन आज भी नजरे पड़ ही जाती है
उसकी उन अदृश्य निगाहों तक
जो तालियों का साथ दे
निहारते है उसके खुले बालों को
ढूंढ़ते है कमियाँ उसके लिबास में
तिरछी नजरों से
उसके चलने में खाने में
उठने-बैठने में...
खिल उठती है मुस्कान उनके चेहरो में
देख उसको हताश
अपने ही हालातों से
वो नही समझ पायेंगे उस सफर को
जो उसने प्रारम्भ किया
उन्हें सिर्फ शूल बन बिछना आता है
और तुम्हें सिर्फ गुलाब बन
महकना होगा निरन्तर
स्वयं के लिए
तुम्हारा महकना ही इनकी पराजय है।
ललिता पाण्डेय
दिल्ली