"माँ"

के.एम.त्रिपाठी "कृष्णा"

मन में आया लिखता हूं कुछ

मां पर भी दो चार शब्द

कागज कलम उठा कर बैठा

सहसा सोच हुआ स्तब्ध।

प्रारंभ कहां से करना है

क्या कहना है क्या लिखना है

मां तो इस सुंदर पृथ्वी पर

देवी का है साक्षात स्वरुप

जिसने जन्मा है इस जग में

करुणा ममता का अमिट रूप।

मां ने लहू के कतरों से

गर्भ में मुझको पाला

मुझे अमृत रस पान कराती

खुद पीड़ा की हाला।

उसकी त्याग तपस्या सोच

मैं हो गया निःशब्द

मन में आया लिखता हूं

मां पर भी दो चार शब्द।

मस्तिष्क पटल पर धुंधली सी

यादों का पिटारा आज भी है

थपकी की वह स्नेही भरी 

लोरी की मधुर आवाज भी है ।

सर्दी के गीले बिस्तर में

सारी रात को वो जगना

वक्षस्थल से चिपका कर

घर का काम स्वयं करना।

चेहरे पर देख मलिनता मेरी

आंखों का उसकी भर आना

जरा कष्ट में पाकर मुझको

सांसो का उसकी थम जाना।

उसकी ममता के वर्णन को

शब्दकोश नहीं उपलब्ध

मन में आया लिखता हूं कुछ

मां पर भी दो चार शब्द।

मां की कीमत उनसे पूछो

जिसने बचपन में मां को खोया है

सारी खुशियां कदमों में थी

फिर भी जीवन भर रोया है ।

माँ ही धरती माँ ही अंबर

माँ ही ममता का सागर है

तीनों लोकों में शायद ही

कोई भी मां से बढ़कर है।

उसका ही कल्याण हुआ है

जिसने मां को पूजा है

इस जग में मां जैसा

और न कोई दूजा है ।

मां का जो अपमान करे

वह समाज के लिए अपशब्द

मन में आया लिखता हूं 

मां पर भी दो चार शब्द।


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