प्रभु का संतुलन
पुरूषों के समाज में,
स्त्रियाँ दोयम दर्जे की
इन्सान तो मान ली जाती हैं...
पर ऐसी इन्सान जो
विषपान कर भी
मुस्कान कर सकती है...
सुषुप्त पड़े सम्बन्धों में भी
प्राण भर सकती हैं....
पर सदियों से आ रही
पुरूषों की वर्चस्व प्रवृत्ति
इस सत्य को करती
नज़र अंदाज है....
पर कह देती सब
उनकी आँखें हैं...
स्त्रियाँ कहाँ दोयम हैं,
नहीं उनके समकक्ष हैं,
वो तो अद्वितीय, अनुपम हैं,
सबसे निराली, सर्वोत्तम हैं,
उन्नत मस्तिष्क,
नरम काया,कोमलांगी ,
विस्तृत ह्रदया हैं.....
प्रभु की लीला
अपरम्पार है...
कुछ स्त्रियों को तो
कुछ पुरूषों को,
गुण दोषों का
कर बँटवारा,उन्होंने,
संतुलन क़ायम किया है.....
वो तो चंद मुट्ठी भर स्वार्थी
इन्सानों ने हैवानियत का
चोंगा ओढ़ अपनी ही मिट्टी
पलीद किया है.....
कोमल सुकुमारी को भी,
पत्थर होने पर
मजबूर किया है...
बन सकीं जो न पत्थर
उसने खुद को राह का
पत्थर बना लिया है....
कोई सिरफिरा आता,
पैरों से मार कर पत्थर को
कहीं भी लुढ़का देता है.....
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चाँद के उस पार
चलो चलें हम चाँद के उस पार,
वो सहस्र चाँद सितारों का शहर,
है जहाँ अतिशय तमस् का कहर,
साथ ही बेशुमार चाँदनी का सर्द !
जलता वहाँ जुगनुओं का दिया ,
रौशन करता यूँ तमस् का क़हर,
भले ही जलता जुगनुओं का पर,
रौशन शहर है चमकता हर पहर!
सुनो देखो कश्ती है अति सुन्दर,
नाविक भी प्रतिबद्ध ,सहर्ष तैयार,
मौजों की रवानी, मस्त नीर धार,
चलो चलें हम चाँद के उस पार !
धरा हो गई अति विषाक्त सुस्त,
पल रहे हैं कई असुर मानव रूप,
पड़ गई है अब काया कुछ रूग्न,
ले चलो तुम कहीं दूर बहुत दूर !
गर चाहो न जाना तुम साथ प्रिय,
है नहीं कोई हमें मलाल तब भी,
बस खोल लेना तुम इन पन्नों को,
गुनगुनाना कभी कोई प्रणय गीत!
रहूँगी मैं पन्नों पर ही सदा बहती,
जब भी चाहोगे मिल जाऊँगी वहीं,
लगाना गले या गुनगुना लेना तुम,
दूँगी अहसास अपने होने का प्रिय!
सदा रहूँगी अमर,बागों बहारों में,
कभी शजर की ओट से झाँकती
इठलाती सूरज की किरणों संग,
कभी चाँदनी की सर्द फ़िज़ाओं में!
कभी मिलूँगी सुबह की चाय संग,
तो कभी सजा दूँगी खाने की मेज़
रहूँगी बनकर साँसों की महक मैं,
ओढ़ा दूँगी धड़कनों का लिहाफ़ !
देखोगे तुम सुता की पाजेबों में,
कभी उनकी काया जिज्ञासा मे,
तो कभी सुत के ओजस्वी मुख,
या पाओगे बहुमुखी प्रतिभाओं में!
पहनाया है तुमने माला फूलों की,
गूँथी गईं है यूँ सब,ग्लैडुला ,बेला,
गुलाब,रजनीगंधा,जूही सब साथ,
मिलीजुली महक रहेगी सदा ताज़ी!
रहूँ मैं सदा अमर,यही है कामना,
चलो चलें हम चाँद के उस पार !!
रंजना बरियार