बचपन की याद
गिरिराज पांडे
छोटे थे बचपन में जब हम गांव में रहते थे
सब बच्चों के बीच में हम भी खेल खेलते थे
गोली गुल्ली डंडा सोत्ता या हो बुढ़वा दादा
होते बच्चे एकत्रित और करे शोर भी ज्यादा
हा हा ही ही सुन कर के सब दौड़ के आते थे
आए खेलने वाले यह सब जान भी जाते थे
एक जगह निश्चित होती थी जहां पर सब आते थे
अपना-अपना डंडा वह सब साथ में लाते थे
बेहया बांस का डंडा और खुदा मिट्टी में प्याला
होता था सामान यही सब गेंदा कपड़ा वाला
खेल शुरू होने के पहले टास किया जाता था
छोटा हो या बड़ा वहां पर एक चुना जाता था
खप्पर ही बनता था सब का निर्णय करने वाला
सबसे पहले खेल वो खेलें टाश जीतने वाला
एक दूजे पर फेके हम वो गेदा कपड़ा वाला
होती खुशी सभी के मन में खेले बुढ़वा दादा
एक एक को पारी पारी शब दौड़ाते थे
नहीं किसी को दुख होता सब खुशी मनाते थे
किसी किसी को कभी कभी ज्यादा दौडाते थे
निकल उसी से एक कोई फिर उसे बचाते थे
हो रुदन सा चेहरा उदास सब उसे हंसाते थे
खेल खेल में आपस में हम लड़ते रहते थे
लड़कर रोकर सिसक सिसक कर भूल भी जाते थे
करते थे हम गलती और दूजे की बतलाते थे
सारा काम बिगाड़ा इसने आरोप लगाते थे
दाल चने में दो होती सब को बतलाते थे
गांठ नहीं होती थी मन में भूल भी जाते थे
गिरिराज पांडे
वीर मऊ
प्रतापगढ़