गोविन्द कुमार गुप्ता
कुछ मेरा भी मन करता है
सृंगार लिखूं सृंगार लिखूं,
नारी की महिमा की खातिर
कुछ प्यार भरे उदगार लिखूं,।।
न ओंठो की महिमा मैं लिखूं,
न आँखों की मादकता को,
न चाल लिखूं हिरनी जैसी,
न लिखूं जिस्म की महानता को,
इतना यदि लिख पाया न मैं
तो कैसे मैं सृंगार लिखूं,।।
कुछ मेरा भी मन करता है
सृंगार लिखूं,सृंगार लिखूं,।।
नारी के जिस्म की होती है,
जिसे लोग नुमाइश कहते है,
आंखों से ओंठो तक देखो,
लिखने की कोशिश करते है,
पर नारी के सौंदर्य को न
जो देखा तो कैसे मैं लिखूँ,।
कुछ मेरा भी मन करता है
सृगार लिखूं ,सृगार लिखूं,।।
मैंने तो देखा है अब तक
केवल मन की सुंदरता को,
कितना सुंदर मन नारी का ,
न दिखा कभी मादकता हो,
जैसी हो नजर लेखनी की,
मैं तो बस केवल प्यार लिखूं,
कुछ मेरा भी मन करता है,
सृंगार लिखूं,सृंगार लिखूं,।।
कुमकुम की बिंदी मांथे पर,
और मांग भरी सिंदूर से हो,
सर पर हो पल्लू साड़ी का,
पहचान सदा ही दूर से हो,
नारी की इसी महानता को,
मैं अपनी ही लेखनी से लिखूं,
कुछ मेरा भी मन करता है ,
सृगार लिखूं,सृगार लिखूं,।।
गोविन्द कुमार गुप्ता
मोहम्मदी लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश🙏✍️