डॉ. वर्षा महेश "गरिमा"
निरंतर चलती रहती,
सुबह दोपहर शाम ,
कभी थकती नहीं,
न कोई शिकायत करती,
घर आंगन खिल उठता है,
उसकी सेवा और सत्कार से,
बूझो तो मां कैसी है????
मां एक नदी के जैसी है!!!!
शीतलता उसका गहना,
सौम्यता की चादर ओढ़े,
माथे पर लाल बिंदी सजाए,
कभी लगती श्यामला तो कभी निर्मला,
न जाने कितने रूप धरती,
कभी घटती तो कभी बड़ती,
बूझो तो मां कैसी है????
मां चांद के जैसी है!!!!
देना ही जानती है वो,
लेना कभी सीखा ही नहीं,
तपती है दिन- रात ज़िंदगी की भट्टी में,
उसके कदमों से रोशन है घर का कोना -कोना,
वो घर की सुबह और सांझ होती है,
बूझो तो मां कैसी है???
मां सूरज के जैसी है!!!!
बरगद सा विशाल हृदय उसका,
सुख - दुख में सदा रहती सरल,
तूफ़ान से इरादे , हौसले है प्रबल,
भयभीत होती नहीं वो मुश्किलों से,
हर इम्तिहान में रही है अव्वल,
वो शौर्य और पराक्रम की गंगा की उदगार है,
बूझो तो मां कैसी है???
मां पर्वतराज हिमालय के जैसी है!!!!