डॉ संगीता पांडेय "संगिनी"
आज भी याद है मुझे,
माँ की दिनचर्या,
सुबह सबेरे जल्दी उठकर
घर के चक्कर काटे-माँ।
दिन में घर के कामों में हरदम
उलझी रहती-माँ।
दैनिक कार्यों से निवृत्त हो,
व्यस्त रसोई में होती-माँ।
कौन कहाँ है?
कब जायगा?
कहाँ गया है?
कब आएगा?
क्या पसन्द है?
क्या खायेगा?
सभी का ब्यौरा रखती-माँ।
किसको क्या चाहिए?
कहाँ रखा है?
कहाँ मिलेगा?
दिनभर घर सहेजती-माँ।
बहन-भाइयों के क्रियाकलाप पर,
हरदम नज़र गड़ाती-माँ।
कभी-कभी फुर्सत में होती,
रंग-बिरंगी फ्राके सिलकर,
मुझे पहनाती-माँ।
पापा से 'मनोरमा 'मँगवाती,
अपने हाथों से भाइयों के,
स्वेटर बुनती-माँ।
पास-पड़ोस में बुलाबा जाने पर,
मेहमानों के घर आने पर,
हरदम खुश होती-माँ।
नाती-पोतो के जन्मों पर,
उनकी मोहक किलकारी से,
नाज़ों नख़रे भी खूब उठाती,
हर्षित होती-माँ।
सुख-दुःख की धूप-छाँव में भी,
पापा का पग -पग साथ निभाकर,
जाने कितने दशक बिताकर,
अब रीती हो गई -माँ।
समय की गति के साथ -साथ
माँ पापा भी अब जीर्ण हो गये,
लेकिन आज भी सारे घर की,
धुरी है मेरी-माँ।
आज भी सबकी तकलीफों का
भार उठाती-माँ।
कभी-कभी मन मे आता है,
या यूँ कहे माँ को लगता है,
आज सभी पर जैसे,
बोझा हो गई -माँ।
डॉ संगीता पांडेय "संगिनी"
कन्नौज उत्तर प्रदेश