खँडहर

 

नीलम द्विवेदी,

अवशेष से कुछ रह गए थे,

गुजरे लम्हें पुरानी याद के,

कुछ काँपते अहसास भी,

तुम संग जगी उस रात के।


यादों का है बनता खँडहर,

बवंडर सा उठता हर प्रहर,

आज मन विचलित हुआ,

खामोशी ओढ़े मेरा शहर।


अब भी किसे खोजे नजर,

है मलवा कहीं पर खँडहर,

किस उम्मीद पर कोई जिए,

तन्हा सफर अनजानी डगर।


वो फिर अकेले चुन रहे थे,

कुछ ईंट उजड़े खँडहर के,

फिर से बनाने की ललक,

इक छांव अपनों के लिए।।


नीलम द्विवेदी,

रायपुर, छत्तीसगढ़।

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