तुम्हारे मुंह से अपने लिये
गालियां सुनना खुला तो जरूर
पर उतना नहीं
जितना कि बरसों की जवान दोस्ती
के लिये
बैसाखियों का ढूंढ़ना !
और जब कि मैं
अॅंधेरे के खिलाफ लड़ रहा था
तत्पर था
सूरज की पहली किरण से
सूरज की अन्तिम किरण तक
प्रत्येक रश्मि को संजोने में,
तुम्हारे वाक्शरों ने
मेरे सूरज को ग्रस लिया.
मर्माहत में
आज फिर भटक रहा हूं
तामसी प्रदेश में-अपने
सूरज की खोज में.
राकेश चन्द्रा
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