ललिता पाण्डेय
ऐसा क्या गुनाह हुआ ईश्वर
छीन रहा मुस्कान सभी की
दया करो हे प्रभु
नही होती सहन पीड़ अब
यूँ मुरझाते चेहरो की।
बाँधे है मोह के धागे तूने ही
तो फिर अनजान कैसे रहे
देख दर्द अपनो का
चुपचाप कैसे सहे।
हाथ जोड़कर है विनती
हे परमपिता
अब बस कर
न बना श्मशान धरा को
बिन मानव धरा भी रोती रहें।
हाँ न करेंगे परेशां इसे हम
नई बीज नई फसले लगाएंगे
रूप धरा का वापस कर देगें।
पीत वसन में दिखेगी धरा
नीला स्वच्छ अम्बर होगा
शशि की मुस्कान
तारों की छाँव में ही घर बसाएगें।
लालिमा लिए हो होगा अरुणोदय
थोड़े मे सन्तोष करेगें
वन्य जीव का न हरण करेंगे
आपस मे मिलकर रहेगें।
सीख दिया है पाठ मानवता का
देख लिया है रूप इंसानियत का
हे परमपिता अब बस कर
रहम कर अपनी सन्तान पर
हम पुनःनिर्माण कर स्वयं का
तेरा मान रखेंगे।
ललिता पाण्डेय
दिल्ली