ग़ज़ल
जानता हूँ इस भँवर से मैं निकल सकता नहीं..।।
देख कर तूफाँ मगर रूख भी बदल सकता नहीं..।।
माना करूणा सत्य निष्ठा आजकल बेकार हैं..
फिर भी मैं अपने उसूलों को बदल सकता नहीं..।।
जहर नफरत का दिलों में घोलता है जो बशर..
साथ उनके मैं किसी कीमत पे चल सकता नहीं..।।
आग मे दुनिया की इतना जल चुका हूँ मैं नितान्त
आँच से अब आँसुओ की मैं पिघल सकता नहीं..।।
मुक्तक...
न रास आए जो,वह रास्ता बदल के चलो..।।
खुद अपनी राह बनाओ,मचल मचल के चलो..।।
कदम कदम पे यहाँ, इम्तिहान होते हैं..
ये जिन्दगी की डगर है,बहुत सभँल के चलो..।।
मुक्तक...
माना समय खराब है पर जिन्दगी नहीं..।।
खुशियों की कुछ कमी है मगर दिल दुखी नहीं..।।
यूँ जिन्दगी का हाल है इस दौर में नितान्त..
जैसे कि हों कुँए मे दिखे रौशनी नहीं..।।
बाल गजल...
बचपन
सबसे अधिक सुहाना बचपन ।।
मस्त मस्त मस्ताना बचपन.।।
जी भर खाओ जी भर पहनो
खेल खिलंदड़ वाला बचपन.।।
गुल्ली डण्डा, खों खों,कबड्डी
छुआ छुऔरी वाला बचपन.।।
पापा के कान्धों की सवारी
याद आता वो प्यारा बचपन.।।
मम्मी की लोरी वाला वो
जगता हुआ निंदासा बचपन.।।
अब तो बस अफसोस यही है
कैसे मिले वो न्यारा बचपन.।।
समीर द्विवेदी नितान्त
कन्नौज.. उत्तर प्रदेश