सुधीर श्रीवास्तव
प्रकृति की भी अजब माया है
निःस्वार्थ बाँटती है
भेद नहीं करती है,
बस कभी कभी
हमारी उदंडता पर
क्रोधित हो जाती है।
हर जीव जंतु पशु पक्षी के लिए
खाने, रहने और उसकी जरूरतों का
हरदम ख्याल रखती है,
बिना किसी भेदभाव के
यथा समय सब कुछ तो देती है,
हमें प्रेरित भी करती
सीख भी देती है,
कितना कुछ करती है,
क्या क्या सहती है
परंतु आज्ञाकारी प्रकृति
हमें देती ही जाती है,
हम ही नासमझ बने रहें
तो प्रकृति की क्या गल्ती है?
अपनी गोद से वो हमें
कब अलग थलग करती है?
हाँ हमारी नादानियों, उदंडताओं पर खीछती ,अकुलाती, परेशान होती है,
हमें बार बार संकेत कर
चेताती, समझाने की कोशिश करती,
थकहार कर अपने क्रोध का
इजहार करने को विवश हो जाती,
फिर भी हम समझने को
तैयार जब नहीं होते,
तब वो भी बस!
अपना संतुलन बनाए रखने के लिए
हमें सजा देने के लिए आखिरकार
विवश हो जाती है,हमें दण्ड देती है
फिर भी हमारी बड़ी गल्तियों की
छोटी ही सजा देती है,
खुद भी पछताती, आँसू बहाती है।
■ सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा(उ.प्र.)
8115285921