मालूम है ये वैश्विक महामारी है,
हर तरफ फैली जानलेवा बीमारी है।
कोई अस्पताल में मर रहा,
किसी का चारदीवारी में दम निकल रहा।
कोई कैद है सरकार संगरोध में,
कोई निकल पड़े हैं घर की तलाश में।
कोई थक कर आत्मसमर्पण कर रहा,
कहीं दर्द से बच्ची का दम निकल रहा।
इरादे जिनके नेक नहीं,
वो छुप लुक घुम रहे सीमाओं में।
नाकाम हो रही सरकारी व्यवस्था,
राज्य के भौगोलिक सीमागुल्मों से।
कोई बतलाए उनको कि,
गरीबों का घर उजड़ रहा।
सब उच्च वर्ग की जनता में बस,
लॉकडाउन का पक्ष उमड़ रहा।
कहीं अंतिम शैय्या पर लेटे पिता,
कहीं दूर फंसा नौकरीशुदा बेटा।
देख बिना अंतिम नजर बेटे को,
उस पिता को आखिरी नींद ना आ रहा।
विडंबना है जाने किसकी कि,
लोग अकारण व्याधि लेकर घुम रहें।
जो निकले वैध रास्तों से तो,
सरकारी अभियोग से मिल रहें।
चलो प्रकृति हो गई स्वच्छंद,
पर क्या मानव बंद रह पायेगा?
कैद होकर ईंटों के बंदीगृह में,
अपने में दम घुट मर जाएगा ।
(यह कविता नहीं है, मात्र अपनी संवेदनाओं को शब्द देने का प्रयास है)