डॉ रीता शुक्ल
अर्थ में तुम मत करो विश्वास,
वेदना करुणा दया बस नाम है,
झूठ आडम्बर वह सस्ती चाटुकारी,
सभ्यता के अब नए आयाम है।
सुख सृजन की बात तो एक ओट है-
हम सभी पाषाण युग ही रच रहे हैं।
स्वार्थ से बोझिल धुएं में सांस ले कर,
जी रहे हम सभ्यता को ओढ़कर,
अहम की ही तुष्टि सर्वोपरि बनी है,
हो भले वह परहृदय को तोड़कर।
दूसरों से नेह तो एक ढोंग है,
स्वयं से ही प्यार हमसब कर रहे हैं-
हम सभी पाषाण युग ही रच रहे हैं।।
कौन रोया? ये दबी सिसकी सुनी क्यों,
कौन सा अन्तर का प्रस्तर गल रहा है?
स्वयं के ही कटु सवालों से सहम कर,
आत्मा का यक्ष बचता फिर रहा है।
क्यूं कहा मुझसे कि मैं कविता रचूं,
मैं स्वयं में एक पाषाणी सदी हूं,
सदी औ सदियों से तो युग बन रहे हैं
हम सभी पाषाण युग ही रच रहे हैं।।
डॉ रीता शुक्ल
हैदराबाद
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