तीन बंदर बापू के
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जब से शहर में 'लगे रहो' थी
आई,गांधी संग्रहालय में बहार थी छाई।
तांता विजिटर्स का लगने लगा था।
हर कोई गांधीगीरी समझने लगा था।
संग्रहालय में रखे ,बापू के तीनों बंदर,
बड़े उदास थे,होने लगे उन्हें ,
नए-नए एहसास थे।
आखिर बंद मुँह से रहा न गया।
मुंँह से हाथ हटाया,
और बंद आंँख से फरमाया।
अजी,देखते हो कुछ,
या यूँ अंधे ही रहोगे?
और तुम बंद कान,
कब तक कानों में उँगली धरोगे?
आज हमारे बापू ने,
फिर है धूम मचाई,
लेकिन हाय! हमारी तुम्हारी,
किसी को याद न आई।
मैं तो अब चुप नहीं बैठूंँगा,
अन्याय होते न देखूंँगा।
यहाँ बैठे-बैठे यूँ ही निठल्ले
हो गए कितने बरस,
मुँह,आंँख,कान बंँद किए बेबस।
बंद आँखे ,आँखें फाड़े ,बंद मुँह को ,
चिल्लाते देख रहा था।
इस चिल्लाहट से परेशान,
बंद कान , कान कुरेद रहा था।
कुछ पल देख सुनने के बाद,
बंद आँख झल्लाया।
है क्या यहाँ कुछ देखने को?
बुरा मत देखो,सुनो,बोलो,
भूले क्यों बापू के वचन को?
बंद कान भी कानों से उंगली ,
निकाल गुर्राया "बहुत हुआ,
अपनी पोजीशन में,वापस आओ।
बंदर हो बापू के,कुछ तो शरम खाओ।"
बंद मुंँह बोला,शरम ही तो
यहाँ बेच खाई है सबने,
चूर-चूर हुए बापू के सपने,
संसद में बैठे,जो देश के विधाता ।
गांधी की दें दुहाई,तोड़ गांधी से नाता।
सच के मुँह पर इन्होंने ताला जड़ा है,
झूठ ऐंठा-ऐंठा ,सीना ताने खड़ा है।
अब चुप बैठना होगी कायरता,
इसीलिए मुंँह खोलना पड़ा है।
सुन बात उसकी,बंद आँख भी बोला -
सच कहा मेरे यार ,
देश में फैला हिंसा,शोषण भ्रष्टाचार।
अंधेपन का नाटक और न करूँगा ।
स्टिंग ऑपरेशन करूँगा ,मीडिया से जुडूंँगा।
हवालों,घोटालों की पोल खोलूंँगा।
जय बापू की बोलूंँगा।
बंद कान बेहद दुःखी था
बोल भी नहीं पा रहा था।
पीटता था माथा,आंँसू बहा रहा था।
दशा देख उसकी बाकी दो घबरा गए ।
चुपाने को उसे पास आ गए।
सुना उन्होंने ,वह कह रहा था
अगर पहले ही हटा लेता
उँगलियाँ कानों से,
तो तीस जनवरी को ,
अहिंसा का खून न होता
सुन लेता हत्यारे के ,नापाक इरादे,
बापू को अपने यूँ न खोता।
'तीनों बंदर लगे सिसकने,
याद बापू की ताज़ा हो आई
बापू-जिन्होंने गीता को जिया था।
संदेश सत्य, अहिंसा का दिया था।
आज मंदिर मस्जिद मुंँह फेरे खड़े हैं।
आतंक ने नए-नए चेहरे धरे हैं।
बापू ओ बापू! तुम वापस आओ।
हमको फिर से सही राह दिखाओ।
साकार करो रामराज्य का सपना।
हर दीन दुखी हो बंधु अपना।
चीरती सन्नाटे को आवाज एक आई,
उठो,देखो,बोलो,सुनो ,कहो सब ।
अन्याय को बिल्कुल सहो मत।
अंधेरे पर जीत सदा उजाले ने पाई।
छोड़ो निराशा,जगाओ आशा,
लगे रहो तुम मेरे भाई।
मृत्यु से अमृत की ओर
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रोज जैसा ही था वह दिन भी
उस दिन भी उजला सूरज निकला था।
पत्तियों को थपकाती
संगीत सुनाती,
फूलों से खुशबू चुराती,
हवा भी इठलाती सी बह रही थी।
चिड़ियां भी गा रही थी।
ओसकण चमकते थे मोती से।
दुधमुंहे का चूम माथा।
माँ उसे जगा रही थी।
सचमुच वह दिन भी रोज सा ही सुंदर था।
हाँ आकाश में आशंकाएँ जरूर मंडरा रही थीं।
लेकिन विश्वास भी प्रबल था।
इनके छंट जाने का।
दुर्भाग्य लेकिन
रूख हवाओं के बदल गए,
सूरज कांप कर छिप गया,
कलेजा पर्वत का हिल गया
ओसकण अश्रु बन गए।
सपन हो दफ़न गए।
एक मनहूस मरघटी सन्नाटा
पसर गया सब ओर।
दुनिया को लील जाने को
मौत करोड़ों जीभें
लपलपाने लगी।
परमाणु का पिशाची अट्टहास
विश्व को दहला गया।
धिक्कार उठा विज्ञान खुद को।
ज़ार- ज़ार रो दिया।
धरती के बेटों ने
माँ की छाती पर,
कुलिश प्रहार किया।
इतिहास में
कालिमा से भी काला
रक्तभरा,दुर्गंधयुक्त
एक पन्ना और जुड़ गया
युद्ध का,विध्वंस का।
अब कोई हरियाली नहीं लहराती थी।
अब कोई शिशु नहीं तुतलाता था।
अब कोई चिड़िया नहीं चहचहाती थी।
अब कोई प्यार का गीत नहीं गाता था।
निर्माणों के सभी ऊँचे परचम
धराशायी हो गए थे।
सारी संवेदनाएं,मूल्य सारे
ओढ़े बिना कफ़न ही
आगोश में मौत की सो गए थे।
हिरोशिमा और नागासाकी के
स्मृतिशेष अतीत और वर्तमान को,
अजन्मे ,अज्ञात,अपंग आगत को,
वक्ष से चिपटाए,
धरती बिलख रही थी।
मरघट की उस चुप्पी को
चीरता उसका विलाप,
जो चिथड़े-चिथड़े हो गए।
क्षितिज से टकराता,
उसी तक लौट आता था ।
बार-बार,कितना करूण था।
एक गूंज और भी थी वहाँ
निठुर विजेता के प्रेतिल उन्माद की,
रासायनिक धुएँ के बादल बनाती,
फुफकारती।
पाषाण सी निस्पंद,व्यथित धरती,
सुनती थी यह गूंज-अनुगूंज।
अंतराल बाद,
बदलाव आया।
दुर्गंध कम होने लगी।
छटपटाती धरती फिर से
जन्म मानवता को देने लगी।
अंधेरा छंटने लगा।
किरण जगमगाने लगी।
विनाश में निर्माण की
आहटें आने लगीं।
विश्व कल्याण का लक्ष्य लेकर
यू एन ओ आने लगी।
शंखनाद हुआ नवयुग का
आशा का अंकुर पनपा।
सूरज की सतरंगी किरण
उसे नहलाने लगी।
पीड़ित दलित मानवता को उठाने
यू एन ओ आने लगी।
अंधकार से प्रकाश की ओर
असत्य. से सत्य की ओर,
मृत्यु से अमृत की ओर ,
धरती ये जाने लगी।
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वीणा गुप्त
नई दिल्ली