मुकेश गौतम
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दोष मढ़ना सीख गये है हम तो बात बात में।
खुद को भी उलझा रखा है छोटी छोटी बात में।
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तेरा मेरा इसका उसका में सिमटकर रह गये।
खुद तो पाक साफ नहीं दोषी उसको कह गये।।
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झाक लेते गर अगर अपनी ही गिरेबान में।
तो लोग सर झुकाए होते अपने भी सम्मान में।।
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सोचा ना विचार किया ना ही पढ़ा ध्यान से।
फिर भी हम भरे पड़े हैं पूर्ण ब्रह्म ज्ञान से।।
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सब के सब ही रंग चुके थे बेनरों के रंग में।
सब ही हम हवा में उड़े बेरंगो के संग में।।
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उनकी झूठी वादियों में खुद को ले उड़े थे हम।
जब हवा रूकी वहाँ तो जस के तस पड़े हम।।
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अपना मन बदलने को बदल बदल के आये थे।
काले मन के उजलों ने सपनें ही दिखाये थे।।
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हम कभी न समझ सकें उनकी धूर्त चाल को।
तो चुप ही रहो बंद करों थोथे वार्तालाप को।।
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हमकों तो उलझा रखा है जाति पांति धर्म में।
भेदभाव ईर्ष्या द्वेष और भाषा वाले मर्म में।।
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हम बदल न पाये खुदको उनकों ही बदलने में।
वह कभी भी चूके नहीं हमकों ही निगलने में।।
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रचनाकार
-मुकेश गौतम
ग्रामडपटा बूंदी (राज)