मन की बात

किरण झा  

पता नहीं क्यों कुछ लोग

अपने को महान रचनाकार समझते हैं

गर अपने ज्ञान का उजाला फैला नहीं सकते हैं

किसी को राह नहीं बता सकते

खुद लिखा

खुद को अच्छा मान लिया

कभी ये नहीं सोचा कि

रहीम कबीर तुलसी दास आदि ने 

कभी अपनी नुमाइश नहीं की

बस अपनी लेखनी को अविरल प्रवाहित करते रहे

बहती रही उनकी ज्ञान की सरिता

सभी आनंदित हो कर डुबकी लगाते रहे।

हर एक शब्द उन महान व्यक्तित्व का

पुरा शब्द कोष बना

जिसने चाहा उसने पढ़ा,सीखा 

और अपने को संवारा

लेकिन...

अब तो माहौल ही बदल सा गया है

हर कोई अपने को बड़ा और बुद्धिमान साबित करने

में लगा है

ऐसा नहीं कि मैं इस रेस में शामिल नहीं

पर....

ये अपने शब्दों को न्याय दिलाने के लिए है

सीखने के लिए

कुछ समझने के लिए,

ना कि

महान बनने की चाहत में दुसरों को कुचलने के लिए

हर तरफ एक चक्रव्यूह

और उसमें फंसा अभिमन्यु

मान सम्मान, मर्यादाओं को की बलिबेदी पर खुद की आहुति देता हुआ

कोई कृष्ण नहीं उसके साथ

जो

अपने सुदर्शन चक्र से उसकी रक्षा कर सके

लहुलुहान सा 

धाराशाई होकर गिरना ही है

चारों तरफ

द्रोण, दुशासन, दुर्योधन, कर्ण जयद्रथ जैसे

वीरों ने घेर जो रखा है

आज के परिवेश में मुझे ये अनुभूति होती है

कि...

मैं भी अभिमन्यु ही हूं

फर्क सिर्फ इतना है कि उसे हिम्मत थी अपनों से

टकराने की

मुझे नहीं, कमजोर पाती हूं इस मामले में खुद को

बस इंतजार है

एक कृष्ण का जो मार्गदर्शन करें और

इस महासमर में "किरण" मेरी रक्षा करें


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