ना जाने कहाँ गए वो दिन




वो चोरी चोरी इक दूजे को निहारना,

पास से गुजरते हुए प्यार से पुकारना,

सोचते हुए उन्हें, बालों को संवारना,

ना जाने कहाँ गए वो दिन।


वो सांझ ढ़ले चुपके से छत पर आना,

देखकर इक दूजे को मंद मंद मुस्काना,

डाल आँखों में आँखें हाल ए दिल बताना,

ना जाने कहाँ गए वो दिन।


वो आगे पीछे कॉलेज में आना जाना,

लिखकर खत उन पर इत्र का लगाना,

फिर उन खतों का किताबों में छिपाना,

ना जाने कहाँ गए वो दिन।


बार बार खत को उसके चूमते रहना,

बिना बात ही हर पल झूमते रहना,

इंद्रधनुषी सपनों में ही घूमते रहना,

ना जाने कहाँ गए वो दिन।


उन दिनों को "सुलक्षणा" ढूंढ़ती रहती है,

बनाकर कविता बेचैनी दिल की कहती है,

 उन लम्हों की याद में अश्रुधारा बहती है,

ना जाने कहाँ गए वो दिन।


©® डॉ सुलक्षणा

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