तरुणा पुण्डीर 'तरुनिल
माँ धागा है हम मोती हैं,
उसके नयनों की ज्योति हैं,
वह गर्म तवे की रोटी है,
उसकी डांट में फिक्र होती है।
वह खुद गीले में सोती है
हर पीड़ा को पी लेती है।
वह दुर्गा है वह सरस्वती
संकट में ढाल बन जाती है।
हर व्याधि से बचाने को
नज़र-ऐ- बद से बचाती है।
रात -रात भर जाग वही
देवी माँ को मनाती है।
संघर्ष की धूप दिखाती है
पर छाया भी बन जाती है।
अनपढ़ होकर भी बच्चों को
ऊँची शिक्षा दिलाती है।
माँ ही होती पहली गुरु
चुपके से संस्कार बो जाती है
परिवारों को एक सूत्र में बांध
प्रेम की फ़सल उगाती है।
ईश्वर की प्रतिमूर्ति है माँ
उसकी गोद में स्वर्ग और
कदमों में जन्नत मिल जाती है।
तरुणा पुण्डीर 'तरुनिल'
शिक्षाविद नई दिल्ली।