राकेश चंद्रा
हम मज़दूर हैं ,
हम नाप सकते हैं हजारों
मील की दूरी नंगे पांवों से ;
लाँघ सकते हैं हम पर्वत और कंदराओं को ,
पैरों में पड़े छाले और फफोले
खुद-ब-खुद बन जाते हैं हमारा श्रंगार ;
बचपन हमारा बीतता है
कारखानों की दहलीज पर , और
यौवन के ताप से दहकती है चिमनियाँ ;
हमसे ही नया रूप लेते है बड़े लोग ,
हमारे रक्त से सिंचित है इस धारा की नींव ;
करते है काम जब तक साँस में है साँस ,
रौंदती है जब रेलगाड़ियाँ हमें ,
करते हैं बड़े अदब से मृत्यु को सलाम !
कभी बेर या महुआ के फूलों को सुखाकर,
या फिर मिट्टी की रोटियों को धूप दिखाकर ,
खा लेते हैं अपनी भूख को चटनियों के साथ ;
निगल लेते हैं आँसुओं को स्वच्छ जल की तलाश में ,
यूँ ही बुझाया करते हैं हम सदा से एक अनबुझी सी प्यास ;
हमारे अपने भी हैं जो रहते हैं दूर गांव में,
उनके साए में रहकर ही कटती है
यह मुश्किल सी जिंदगी ;
जग कर देखते हैं और जिनके हसीन ख्वाब ,
उनको भी क्यों छीनना चाहते हैं मेरे वतन के लोग ?
हम मज़दूर हैं बनाते हैं अपने मुल्क की तकदीर,
फिर क्यों भटक रहे हैं हम
जिंदगी के इस बियाबान में ?
@राकेश चंद्रा
610/60, केशव नगर कालोनी
सीतापुर रोड,
लखनऊ उत्तर-प्रदेश-226020