धरती मां की करुण पुकार
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भाग दौड़ है,
मची होड़ है,
धन दौलत की जय-जयकार ।
कौन सुनेगा,
भरी व्यथा से,
धरती मां की करूण पुकार ।
शहर नाम है,
बुरे काम है,
बुरे काम की है ललकार ।
जो लूट सके,
खुलकर अपनों को,
उनका जग में है सरकार ।
सत्य लुप्त है,
धर्म गुप्त है,
चहुंओर है हाहाकार ।
कहां पड़ी है,
जंग लगी है,
वीर शिवाजी की तलवार ।
धरा हमारी,
देश हमारा,
मचा है फिर क्यूं अत्याचार ।
धर्म के साथी,
मौन खड़े हैं,
साथ न देती क्यूं सरकार ।
यहां सियासी,
लोग बहुत पर,
नहीं सियासत में कुछ धार ।
धन अर्जित,
करने का अच्छा,
राजनीति इनका व्यापार ।
धन हीं धर्म है,
धन हीं कर्म है,
ये धनानंद के हैं अवतार ।
कौन सुनेगा,
भरी व्यथा से,
धरती मां की करुण पुकार ।
सोचत मन रघुवीर
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मानव सम प्रभू ढूंढने,
चले सिया को राम ।
जाकी दृष्टि तिहुंलोक है,
किंतु ना आवै काम ।।
नैनन असुअन राम के,
भेद वक्ष बह नीर ।
वन जंगल से जानकी,
पुछत हैं रघुवीर ।।
मन उदास करि हरि चले,
शबरी है जिस राह ।
रामचंद्र के दरश को,
बीते हैं सालों माह ।।
हुआ सवेरा पुष्प खिले,
शबरी मन मुस्काय ।
धन्य धन्य जीवन हुआ,
दरश राम जो पाए ।।
हांथ लिए फल बैर का,
लखन लाल पछतात ।
बिन खाए फल तजि दिए,
छुपा राम से बात ।।
पोछत चरण कमल रज,
भीलनी नैनन नीर ।
प्रेम बड़ा या बैर है ,
सोचत मन रघुवीर ।।
✍️ ऋषि तिवारी "ज्योति"
चकरी, दरौली, सिवान (बिहार)