ग़ज़ल 1.
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प्यार अपना लुटाती रही रात भर
लोरियाँ माँ सुनाती रही रात भर
रोज सीने से अपने लगाकर मुझे
हर बला से बचाती रही रात भर
ख़ुद सही सारे ग़म रात दिन माँ यहाँ
और मुझको हँसाती रही रात भर
अश्क़ पीकर बिताई यहाँ ज़िन्दगी
दूध अपना पिलाती रही रात भर
दुश्मनों से निग़ाहें छुपाकर जगी
रोज मुझको सुलाती रही रात भर
दर्द दिल के सहे हैं कई साल से
ख़्वाब अपना सजाती रही रात भर
जब कभी भूख से हम रोये हैं यहाँ
रो के दामन भिंगाती रही रात भर
लाख कहता ज़माना बुरा या भला
माँ मेरी मुस्कुराती रही रात भर
क़र्ज़ कैसे उतारूँ तेरी , माँ बता
भूखे रहकर खिलाती रही रात भर
फ़र्ज़ 'ऐनुल' निभा ना सका तू कभी
माँ जिसे भी गिनाती रही रात भर
ग़ज़ल .2
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प्यार दिल में जब जगाती हैं तुम्हारी चूड़ियाँ
हौसला मेरा बढ़ाती हैं तुम्हारी चूड़ियाँ
खनखनाती रात भर सोने मुझे देती नहीं
देख मुझको मुस्कुराती हैं तुम्हारी चूड़ियाँ
रोज़ ख्वाबों में मेरे आती हैं मुझको छेड़ने
नींद में अक्सर बुलाती हैं तुम्हारी चूड़ियाँ
इश्क़ की बातें हैं करती मुझको बिस्तर पर लिटा
फिर गले मुझको लगाती हैं तुम्हारी चूड़ियाँ
ज़ख़्म मेरा ये खुरचकर प्यार से सहला देतीं
दर्द देकर क्यूँ रुलाती हैं तुम्हारी चूड़ियाँ
देर तक ये आइने में हैं सँवरती ख़ूब जब
पास आकर कसमसाती हैं तुम्हारी चूड़ियाँ
ख़ूबसूरत बस कलाई थामने का दिल करे
सात रंगों की ही थाती हैं तुम्हारी चूड़ियाँ
धड़कनें बढ़ती हैं 'ऐनुल' चाँदनी रातों में फिर
जब ग़ज़ल को गुनगुनाती हैं तुम्हारी चूड़ियाँ
ग़ज़ल 3.
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तुम हमें क्या लोगे पनाहों में
हम तो चुभते हैं अब निगाहों में
ये ज़माना है प्यार का दुश्मन
लोग ख़ंज़र लिये हैं राहों में
अब सदाक़त पे कौन चलता है
लोग डूबे हुये गुनाहों में
अब अदालत को भी भरोसा है
कैसे झूटे सभी गवाहों में
आज आफिस में यूँ निपटते हैं
रोज़ के काम अब तो माहों में
झूलती फाइलें इधर से उधर
एक - दूजे की रोज़ बाँहों में
अब तो ईमान कुछ बचा ही नहीं
देखिये आज नौकरशाहों में
ढ़ूँढते हैं यहाँ - वहाँ 'ऐनुल'
अपनी ख़ुशियों को रोज़ आहों में
'ऐनुल' बरौलवी
गोपालगंज (बिहार)