ग़ज़ल.1
चलो मिलकर सभी इकसाथ कोरोना भगाते हैं।
जरा सा नीम तुलसी का कड़क काढ़ा बनाते हैं।।
गये जो अस्पतालों में नहीं तुम घर को आओगे,
तुम्हारे लाश से भी ये करोड़ो धन कमाते हैं।
निकलती अस्पतालों में यहां किडनी औ आंखें हैं,
उठा आवाज़ ऊंची अब सबक उनको सिखाते हैं।
नहीं आंसू दिखे मां की नहीं अब हाय लगती है,
न जाने ये बने पत्थर कहर कितना गिराते हैं।
मिले हैं सत्ता के वालिद मिले कुछ सिरफिरे इनसे,
सभी मिलकर कमीनेपन की हद के पार जाते हैं।
मिले गर मौका मुझको तो डिगरियां छीन लूं इनकी,
ये जो बैठे-बिठाये जान की बाजी लगाते हैं।
तमाशाई बनी दुनिया में खूनी खेल देखें है,
निपट बुद्धू बनी जनता ये उनको ही रुलाते हैं।
ग़ज़ल. 2
चलो मिलकर सभी इकसाथ कोरोना भगाते हैं।
जरा सा नीम तुलसी का कड़क काढ़ा बनाते हैं।।
गये जो अस्पतालों में नहीं तुम घर को आओगे,
तुम्हारे लाश से भी ये करोड़ो धन कमाते हैं।
निकलती अस्पतालों में यहां किडनी औ आंखें हैं,
उठा आवाज़ ऊंची अब सबक उनको सिखाते हैं।
नहीं आंसू दिखे मां की नहीं अब हाय लगती है,
न जाने ये बने पत्थर कहर कितना गिराते हैं।
मिले हैं सत्ता के वालिद मिले कुछ सिरफिरे इनसे,
सभी मिलकर कमीनेपन की हद के पार जाते हैं।
मिले गर मौका मुझको तो डिगरियां छीन लूं इनकी,
ये जो बैठे-बिठाये जान की बाजी लगाते हैं।
तमाशाई बनी दुनिया, ये खूनी खेल देखें है,
निपट बुद्धू बनी जनता ये उनको ही रुलाते हैं।
प्रियंका दुबे 'प्रबोधिनी'
गोरखपुर, उत्तर-प्रदेश