" यादों ने मर्यादा तोड़ी,पहरा घना बिठाया है "
( गीत )
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यादों ने मर्यादा तोड़ी,पहरा घना बिठाया है ।
फटे -पुराने कागज पलटे,नजर अँधेरा छाया है ।।
आसमान में खिले सितारे, जुगनूँ दर्पण ले बोले ।
चलो नाव में बैठ किनारे,हम पहुचायें घर गोले ।।
मासूमों को समझ सके ना,इधर-उधर मन भाया है ।
यादों ने मर्यादा तोड़ी,पहरा घना बिठाया है ।।
कभी महल से ना उलझें हम,सीख सिखाते खेत जहाँ ।
माटी की छाती ममता का,भेद दिखे संकेत यहाँ ।।
लाभ विवश पर बड़े सयाने,सब रीतों की माया है ।
यादों ने मर्यादा तोड़ी,पहरा घना बिठाया है ।।
आग उगलती रवि-रश्मियाँ,सागर की लहरें सहमी ।
सभी खजाने लिये नजाकत,चूल्हों की डगरें बहमी ।।
पथिक बने हैं रथी सारथी ,मन उलझत भ्रम काया है ।
यादों ने मर्यादा तोड़ी,पहरा घना बिठाया है ।।
इतराता इठलाता सपना , तड़प हकीकत क्या ? जाने ।
बेवश कहीं शिकायत रोती,शब्द फजीहत क्या ? जाने ।।
जीवन-प्रीति अनुज नहिं भाये,बेशक जीना आया है ।
यादों ने मर्यादा तोड़ी ,पहरा घना बिठाया है ।।
गीत --"चाहतों के घोंसलों में चाहतें दिखती नहीं "
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राहतों का शोर घर-घर,राहतें दिखती नहीं ।
चाहतों के घोंसलों में ,चाहतें दिखती नहीं ।।
तर्क भी असफल हुए जब,बेवजह बदनाम थे ।
हम हकीकत की दलीलें,ले खड़े शरेआम थे ।।
भोर बीता रात की गति,लागतें दिखती नहीं ।
चाहतों के घोंसलों में,चाहतें दिखती नहीं ।।
भूख रोटी माँगती पर,माँगना सीखा नहीं ।
जो अँधेरों को मिटा दे,दीप भी दीखा नहीं ।।
कीमती हैं राज सारे ,आफतें दिखती नहीं ।
चाहतों के घोंसलों में ,चाहतें दिखती नहीं ।।
थे पुराने राग वंचित,हम उन्हीं में खो गये ।
रोशनी के भाव लेकर ,खँडहरों में सो गये ।।
रो गईँ दिनकर की आँखे, ताकतें दिखती नहीं ।
चाहतों के घोंसलों में,चाहतें दिखती नहीं ।।
धैर्य जीवन यज्ञ है ,वट-वृक्ष छाया ना मिले ।
बेसहारों की गली ,खुशियों की काया ना मिले ।।
गीत लिख दो अब "अनुज"तुम,आयतें दिखती नहीं ।
चाहतों के घोंसलों में ,चाहतें दिखती नहीं ।।
डॉ अनुज कुमार चौहान "अनुज"
अलीगढ़ , उत्तर प्रदेश ।