रश्मि मिश्रा 'रश्मि'
कभी धरती दहलती है,
कभी आकाश रोता है
जिसे गंभीर कहते हैं
वो सागर धैर्य खोता है
अभी भी तू नहीं समझा, इन कुदरत के इशारों को,,
तू किस गफलत में खोकर के
चैन की नींद सोता है!!
पाप का बोझ इतना कि•••••
हटीं नदियां किनारों से
भरोसा उठ गया अब तो
बसंती उन बहारों से
कली के सुर्ख गालों को
दृगों का नीर धोता है!!!
बड़ी उद्दण्ड पवनें हैं
जले दीपक बुझातीं हैं
कहीं चिंगारियों को ये
धधक शोला बनातीं हैं
यही सिद्धांत है जग का
वही पाता जो बोता है!!
रश्मि मिश्रा 'रश्मि'
भोपाल (मध्यप्रदेश)